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गुरुदेव की जन्मभूमि जौनपुर के मूल निवासी उनके शिष्य अपने हृदय के भाव आरती के रूप में व्यक्त करते हैं और लिखते हैं : “कृपया मेरे प्रेम को विनोद भाव से ही स्वीकार कर लीजिएगा, जिससे मेरा भाव भी रह जायेगा और आपका विनोद भी हो जाएगा। गुरुवर अधिक क्या कहूँ आपसे, आप सर्वज्ञ हैं। “

आरती श्री गुरु रामभद्र जी की , परम पुनीत ज्ञान अविरल की .

अविरल प्रेम भक्ति की धारा, जासु वचन कलि पवन कुमारा , चित्रकूट मन्दाकिनी धारा , भव तारन जस गंग-जमुन सी (१)

धर्म ध्वजा जसु दंड शरीरा, मर्म भेद श्रुति वेद प्रवीना, सो सब विधि श्री राम अधीना , भक्ति मूर्ति जनु भरत प्रेम की (२)

चरण तेज सत भानु प्रकाशा , परसत होए तमनिशि कर नाशा, जासु धूलि कण “अनिल” सुबासा, मंगल मूल सुभ चरण राम की (३)

करत शेष मुनि शारद गाना, ब्रह्म रूप गुरु ब्रह्म समाना जासु चरण तल ईश सुजाना , शरणागति सब विधि गुरुवर की (४)

निर्गुण ब्रह्म सगुन जो होई, चरन चिन्ह राखे उर सोई, सोई गुरुचरण ज्ञान उर माही , “गिरिधर” पग रज “अनिल” सीस की (५)

सीताराम जय सीताराम सीताराम जय सीताराम

रचयिता : अनिल पाण्डेय सम्पादक : अपूर्व अग्रवाल

वेद में श्रीरामोपासना की प्राचीनता बतायी गयी है। ऋग्वेद के १०४१७ मन्त्रों से १५५ मन्त्रों, एक मन्त्र वाजसनेयि संहिता से तथा एक अन्यत्र संहिता से लेकर, नीलकण्ठ-सूरि ने ’मन्त्ररामायण’ नामक एक प्रख्यात रचना की थी जिस पर’मन्त्ररहस्य-प्रकाशिका’ नामक स्वोपज्ञ व्याख्या भी की थी। इससे प्रमाणित होता है कि सृष्टि के प्राचीन काल से ही श्रीरामोपासना सतत चली आ रही है। अब इस रामोपासना की अविच्छिन्नता पर विचार करते हैं। उपनिषदों में भी श्रीराम-मन्त्र का वर्णन आया है।श्रीरामतापिनी उपनिषद की चतुर्थ कण्डिका-

“श्रीरामस्यमनुंकाश्यांजजापवृषभध्वजः। मन्वन्तरसहस्रैस्तुजपहोमार्चनादिभिः॥

-रा. ता. उ. ।४।१॥“

में आया है। काशी में श्रीराममन्त्र को शिवजी ने जपा, तब भगवान् श्रीरामचन्द्र प्रसन्न होकर बोले:-

“त्वत्तोवाब्रह्मणोवापियेलभन्तेषडक्षरम्।जीवन्तोमन्त्रसिद्धाःस्युर्मुक्तामांप्राप्नुवन्तिते॥

-रा. ता. उ. ।४।७॥“

अर्थात्- हे शिवजी! आप से या ब्रह्मा से जो कोई षडक्षर-मन्त्र को लेंगे, वे मेरे धाम को प्राप्त होंगे। पुराणों,पाञ्चरात्रादि ग्रन्थों में भी रामोपासना का विधिवत् वर्णन पाया जाता है। अगस्त्यसंहिता, जो रामोपासना का प्राचीनतम आगम ग्रन्थ है, के १९ वें अध्याय तथा २५ वें अध्याय में भी रामोपासना का वर्णन पाया जाता है। बृहद्ब्रह्मसंहिता के द्वितीय पाद अध्याय ७, पद्म पुराण उत्तर खण्ड अध्याय २३५ तथा बृहन्नारदीयपुराण पूर्व भाग के अध्याय ३७ से यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रीरामोपासना तीनों युगों में होती आयी है। इस तथ्य से सम्बन्धित कुछ वाक्यों का अब हम सिंहावलोकन करते हैं। महारामायण (और ऐसे और भी ग्रन्थों में) तो स्पष्टतः- श्रीरामजी ही स्वयं भगवान् हैं ऐसा कहा है:-

“भरणःपोषणाधारःशरण्यःसर्वव्यापकः।करुणःषड्गुणैःपूर्णोरामस्तुभगवान्स्वयं॥

-(महारामायण)”

इसी सन्दर्भ में याज्ञवल्क्य संहिता की यह पंक्ति भी उल्लेखनीय है:-

पूर्णःपूर्णावतारश्चश्यामोरामोरघूत्तमः।अंशानृसिंहकृष्णाद्याराघवोभगवान्स्वयं॥

-(याज्ञवल्क्यसं., ब्रह्मसंहिता)

पुराणों में तिलक स्वरूप श्रीमद्भागवतम् में इस से सम्बद्ध कुछेक प्रसङ्ग देखें:-

किम्पुरुषे वर्षे भगवन्तमादिपुरुषं लक्ष्मणाग्रजं सीताभिरामं रामं तच्चरणसन्निकर्षाभिरतः परमभागवतो हनुमान् सह किम्पुरुषैरविरतभक्तिरुपास्ते ॥

-(श्रीमद्भा. ५।१९।१॥)

(अर्थात्, किम्पुरुष वर्ष में श्रीलक्ष्मणजी के बड़े भाई आदिपुरुष, सीताहृदयाभिराम भगवान् श्री रामजी के चरणों की सन्निधि के रसिक परम भागवत हनुमान् जी अन्य किन्नरों के साथ अविचल भक्तिभाव से उनकी उपासना करते हैं।) आगे श्री शुकाचार्यमहाराज श्रीरामजी को परब्रह्म तथा सबसे परे मानते हुए छः बार ’नमः’ शब्द (षडैश्वर्य युक्त सूचित करते हुए) एवं नौ विशेषणों का प्रयोग करके यह सिद्ध किया है कि भगवान् श्री राम पूर्ण ब्रह्म हैं:-

ॐ नमो भगवते उत्तमश्लोकाय नम आर्यलक्षणशीलव्रताय नम उपशिक्षितात्मन उपासितलोकाय नमः साधुवादनिकषणाय नमो ब्रह्मण्यदेवाय महापुरुषाय महाराजाय नम इति ॥

-(श्रीमद्भा. ०५.१९.००३ ॥)

और आगे तो कह ही दिया –

“सीतापतिर्जयतिलोकमलघ्नकीर्तिः (श्रीमद्भा. ११।४।२१)” ।

इतना ही नहीं। योगीश्वर करभाजन राजा निमि को यह बताते हैं कि कलियुग में भगवान् की स्तुति इस प्रकार करते हैं-

ध्येयं सदा परिभवघ्नमभीष्टदोहं तीर्थास्पदं शिवविरिञ्चिनुतं शरण्यम् । भृत्यार्तिहं प्रणतपाल भवाब्धिपोतं वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम् ॥

– (श्रीमद्भा. ११.०५.०३३ ॥)

त्यक्त्वा सुदुस्त्यजसुरेप्सितराज्यलक्ष्मीं धर्मिष्ठ आर्यवचसा यदगादरण्यम् । मायामृगं दयितयेप्सितमन्वधावद् वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम् ॥

– (श्रीमद्भा. ११.०५.०३४ ॥)

(अर्थात्, प्रभो आप शरणागत रक्षक हैं। आपके चरणारविन्द सदा-सर्वदा ध्यान-करने योग्य, माया-मोहादि से उत्पन्न सांसारिक पराजयों को समाप्त करने वाले, तथा भक्तों को समस्त अभीष्ट प्रदान करने वाले कामधेनु स्वरूप हैं। वे तीर्थों को भी तीर्थ बनाने वाले स्वयं तीर्थ स्वरूप हैं; शिव, ब्रह्मा आदि देवता उन्हें नमस्कार करते हैं। सेवकों की समस्त आर्ति और विपत्ति के नाशक तथा संसार-सागर से पार जाने के लिए जहाज हैं। महापुरुष! मैं आपके चरणों की वन्दना करता हूँ। भगवन्! पिताजी के वचनों से देवताओं द्वारा वाञ्छनीय और दुस्त्यज राज्यलक्ष्मी को छोड़कर आपके चरण कमलवन-वन घूमते रहे। आप धर्मनिष्ठता की सीमा हैं। हे महापुरुष! अपनी प्रेयसी के चाहने पर जान-बूझकर मायामृग के पीछे दौड़्ते रहे।प्रभो! मैं आपकी उन्हीं चरणों की वन्दना करता हूँ।) ध्यातव्य है कि यह ध्यान किसी और का नहीं वरन् अशरण-शरण सीता पति भगवान् राम का है। अर्थात् भागवतकार का स्पष्ट निर्देश है कि कलियुग में तो केवल भगवान् श्री राम की ही स्तुति वाञ्छनीय है। पद्मपुराण में पार्वतीजी शिवजी से यह प्रश्न करती हैं:-

विष्णोःसहस्रनामैतत्प्रत्यहंवृषभध्वज ।नाम्नैकेनतुयेनस्यात्तत्फलंब्रूहिमेप्रभो ॥

– (पद्मपु. उत्तरखण्ड ७१।३३०)

तो महादेवजी का उत्तर है-

रामरामेतिरामेतिरमेरामेमनोरमे ।सहस्रनामतत्तुल्यंरामनामवरानने ॥

– (पद्मपु. उत्तरखण्ड ७१।३३१, २५४।२२)

स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों? तो इसका भी उत्तर पद्म-पुराण में ही है-

विष्णोरेकैकनामैवसर्ववेदाधिकंमतम् ।तादृङ्नामसहस्राणिरामनामसमानिच ॥ यत्फलंसर्ववेदानांमंत्राणांजपतःप्रिये ।तत्फलंकोटिगुणितंरामनाम्नैवलभ्यते ॥

– (पद्मपु. उत्तरखण्ड२५४।२७-२८)

अर्थात्, श्रीविष्णुभगवान् के एक-एक नाम भी सम्पूर्ण वेदों से अधिक माहात्म्यशाली माना गया है।ऐसे एक सहस्रनामों के तुल्य रामनाम के समान है। हे प्रिये (पार्वती)! समस्त वेदों और सम्पूर्ण मन्त्रों के जप का जो फल प्राप्त होता है, उसके अपेक्षा कोटि गुणित फल रामनाम से ही प्राप्त हो जाता है। नारद पुराण तो यहाँ तक कहता है किसी भी मन्त्रों (गाणपत्य, सौर, शाक्त, शैव एवं वैष्णव) में वैष्णव मन्त्र श्रेष्ठ है। और वैष्णव-मन्त्रों से भी राम-मन्त्र का फल अधिक है। तथा गाणपत्यादि मन्त्रों से तो कोटि-कोटि गुणा अधिक है। और सभी राममन्त्रों से भी श्रेष्ठ है षडक्षरराम-मन्त्र :-

“अथ रामस्य मनवो वक्ष्यन्ते सिद्धिदायकाः। येषामाराधनान्मर्त्यास्तरन्ति भवसागरम् ॥ सर्वेषु मन्त्रवर्येषु श्रेष्ठं वैष्णवमुच्यते ।गाणपत्येषु सौरेषु शाक्तशैवेष्वभीष्टदम् ॥ वैष्णवेष्वपि मन्त्रेषु राममन्त्राः फलाधिकाः। गाणपत्यादिमन्त्रेभ्यः कोटिकोटिगुणाधिकाः ॥ विष्णुशय्यास्थितो वह्निरिन्दुभूषितमस्तकः ।रामाय हृदयान्तोऽय महाघौघविनाशनः ॥ सर्वेषु राममन्त्रेषु ह्यतिश्रेष्ठः षडक्षरः ।ब्रह्महत्या सहस्राणि ज्ञाताज्ञातकृतानि च ॥“ – (नारदपुराण।पूर्वभाग।तृतीयपाद।अध्याय ७३।१-५)

पद्म-पुराण और राम-रक्षास्तोत्र भी इस तथ्य पर अपनी सहमति इस प्रकार देते हैं:-

“श्रीरामेतिपरंजाप्यंतारकंब्रह्मसंज्ञकम्।ब्रह्महत्यादिपापघ्नमितिवेदविदोविदुः॥“

– (रामरक्षास्तोत्र)

“षडक्षरंमहामंत्रंतारकंब्रह्मउच्यते ।येजपंतिहिमांभक्त्यातेषांमुक्तिर्नसंशयः ॥ इंदीवरदलश्यामंपद्मपत्रविलोचनम् ।शंखांगशार्ङ्गेषुधरंसर्वाभरणभूषितम् ॥ पीतवस्त्रंचतुर्बाहुंजानकीप्रियवल्लभम् ।श्रीरामायनमइत्येवमुच्चार्य्यंमन्त्रमुत्तमम् ॥ षडक्षरंमहामंत्रंरघूणांकुलबर्द्धनम् ।जपन्वैसततंदेविसदानंदसुधाप्लुतम् । सुखमात्यंतिकंब्रह्मह्यश्नामसततंशुभे ॥

-(पद्मपु. उत्तरखण्ड २३५।४३-४५,६३)”

अगस्त्यसंहिता के अनुसार-

सर्वेषामवतारीनामवतारीरघूत्तमः।रामपादनखज्योत्सनापरब्रह्मेतिगीयते॥

और वाराह संहिता तो डिम-डिम घोष कर कह रहा है –

“नारायणोऽपिरामांशःशङ्खचक्रगदाधरः॥“

भगवान् श्री राम की सर्वश्रेष्ठ-भजनीयता सतत रूप से आज भी दर्शनीय है।आद्यजगद्गुरुशंकराचार्य अपने रामभुजंगप्रयास्तोत्र में भगवान् श्री राम की श्लाघनीय स्तुति की है जनके कुछ श्लोक उद्धृत किये जा रहे हैं :-

“विशुद्धंपरंसच्चिदानन्दरूपंगुणाधारमाधारहीनंवरेण्यम्। महान्तंविभान्तंगुहान्तंगुणान्तंसुखान्तंस्वयंधामरामंप्रपद्ये॥१॥“

(अर्थात्, जो शुद्ध सच्चिदानन्द परमात्मस्वरूप हैं, सर्वथा निराधार होते हुए भी सभी गुणों के आधार हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं, सबसे महान् हैं, प्रत्येक प्राणी के हॄदय-गुहा में विराजमान हैं, अनन्तानन्त गुणों की सीमा हैं और सर्वोपरि सुखस्वरूप हैं, उन स्वप्रकाश स्वरूप भगवान् श्री राम की मैं शरण ग्रहण करता हूँ।)

“शिवंनित्यमेकंविभुंतारकाख्यंसुखाकारमाकारशून्यंसुमान्यम्। महेशंकलेशंसुरेशंपरेशंनरेशंनिरीशंमहीशंप्रपद्ये॥२॥”

(अर्थात्, जो परम कल्याण-स्वरूप, त्रिकाल में नित्य, सर्वसमर्थ, तारक राम के नाम से प्रसिद्ध, सुख के निधान, आकार शून्य, सर्वमान्य, ईश्वर के भी ईश्वर, सम्पूर्ण कलाओं के स्वामी परन्तु उनका स्वामी कोई नहीं, सम्पूर्ण मनुष्यों के स्वामी, पृथ्वी के भी स्वामी पर उनका कोई शासक नहीं है; मैं उन भगवान् श्री राम की शरण लेता हूँ।)

“पुरःप्राञ्जलीनाञ्जनेयादिभक्तान्स्वचिन्मुद्रयाभद्रयाबोधयन्तम्। भजेऽहंभजेऽहंसदारामचन्द्रंत्वदन्यंनमन्येनमन्येनमन्ये॥७॥“

(अर्थात्, भगवान् श्री राम के समक्ष अञ्जनी नन्दन हनुमान् आदि भक्त अञ्जलि बाँधे खड़े हैं और वे उन्हें अपनी चिन्मय मुद्रा से कल्याणकारी उपदेश दे रहे हैं। मैं ऐसे भगवान् श्री रामचन्द्र का सदा बार-बार भजन करता हूँ तथा आपको छोड़कर त्रिकाल (जाग्रत्, स्वप्न तथा सुषुप्ति) में भी किसी अन्य को नहीं मानता। श्रीयामुनाचार्य (जो आद्यजगद्गुरुरामानुजाचार्य के रामभक्ति के वास्तविक शिक्षा-दीक्षा गुरु माने जाते हैं) ने अपने ’स्तोत्ररत्नम्’ में लिखा है :-

“ननुप्रपन्नःसकृदेवनाथतवाहमस्मीतिचयाचमानः।तवानुकम्प्यःस्मरतःप्रतिज्ञांमदेकवर्जंकिमिदंव्रतंते॥“

अर्थात्, हे नाथ आप अपनी उस प्रतिज्ञा (मैं आपका हूँ यह कहकर यदि कोई भी मेरी शरण में एक बार आ जाता है तो मैं उसे सभी जीवों से तात्कालिक एवम् आत्यन्तिक अभय प्रदान कर देता हूँ) का स्मरण करें तथा मुझपर अनुकम्पा कर अपना लें अन्यथा क्या यह शरणागतपालक-व्रत मुझ अकिञ्चन को छोड़कर किया गया? और तो और । अब्दुरर्हीमखानखाना की दीनता भरी प्रार्थना हृदय को विगलित कर भगवान् श्री राम का ध्यान साकार तो करता ही है:-

“अहल्यापाषाणःप्रकृतिपशुरासीत्कपिचमूर्गुहोऽभूच्चण्डालस्त्रितयमपिनीतंनिजपदम्। अहंचित्तेनाश्मापशुरपितवार्चादिकरणेक्रियाभिश्चाण्डालोरघुवरनमामुद्धरसिकिम्॥“

(अर्थात् अहल्या पत्थर की शिला थी और वानर सेना स्वभाव से पशु समूह था। गुह (निषादराज) चाण्डाल था। इन तीनों को आपने अपने पद मे ले गये। मैं चित्त से पत्थर, आपके पुण्यराशि से विमुख निरापशु और अपने कर्मों से चाण्डाल हूँ। क्या मेरा उद्धार नहीं करोगे?) उपरोक्त शास्त्रीय सन्दर्भों के आलोक में यह स्पष्ट रूपेण प्रमाणित हो रहा है कि संप्रदाय-परम्परा से निरपेक्ष चारों युगों में द्विभुज भगवान् श्री राम की अविच्छिन्न उपासना होती रही है। तभी तो कलिपावनावतार हुलसी-हर्षवर्धन गोस्वामी तुलसीदासजी ने उद्घोषणा की-

“शम्भुविरंचिविष्णुभगवाना।उपजहिंजासुअंशतेनाना॥“

-(रामचरितमानस-१।१४४।६)

अब यदि अपने सम्प्रदाय का अभिमत देखना चाहें तो जगद्गुरुआद्यरामानन्दाचार्यजी ने अपने श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर में स्पष्टतः कहा कि:-

“द्विभुजस्यैवरामस्यसर्वशक्तेःप्रियोत्तम।ध्यानमेवविधातव्यंसदारामपरायणैः॥५९॥“

अर्थात्, हे प्रियोत्तम! श्रीराम परायणों द्वारा सर्वदा सर्वशक्तिमान् दो भुजाओं वाले श्रीराम जी का ही इस प्रकार ध्यान करना चाहिये। तब यह कहने को विवश कर देता है-

अवधधाम धामाधिपति अवतारणपति राम। सकलसिद्धपति जानकी दासनपति हनुमान।।

लेखक : डॉ. रामाधार शर्मा, पटना सम्पादक : अपूर्व अग्रवाल

अपने रामानन्दीय विशिष्टाद्वैत सम्प्रदायमें चित्, अचित् और तद्विशिष्ट तीन तत्त्व माने गये हैं।

“सूर्यमण्डल मध्यस्थं रामं सीतासमन्वितम् –श्रीरामस्तवराज स्तोत्रम् ॥५०॥“

में श्रीरामको निरंतर जगज्जननी जनकनंदिनी माँ श्रीसीतासे समन्वित कहा गया है।अर्थात् श्रीरामजी श्रीसीताजीसे कभी पृथक हो ही नहीं सकते। भगवान् श्रीरामजी सच्चिदानन्द हैं तथा श्रीसीताजी संविदानन्द। दोनों ही परस्पर अभिन्न है। यथा-

“ रामः सीता जानकी रामचन्द्रो नित्याखण्डो ये च पश्यन्ति धीराः। -(अथर्व. )”

अर्थात् श्रीराम ही श्रीसीता हैं तथा श्रीसीता ही श्रीराम हैं, दोनोंमें कोई भेद नहीं है।इसी तथ्यके समर्थनमें सदाशिव संहिता का यह श्लोक भी द्रष्टव्य है-

“रामस्सीता जानकी रामचन्द्रः नाणुर्भेदो ह्येतयोरिति कश्चित्।

संतो मत्वा तत्त्वमेतद्धि बुद्धवा पारं जाताः संसृतेर्मृत्युकालात्॥“

एक शुक्लतेजोऽवच्छिन्न ब्रह्म हैं और एक श्यामतेजोऽवच्छिन्न ब्रह्म है। इसीलिए श्रीसीताजीको भी विशिष्ट तत्त्व परब्रह्म तत्त्व ही माना जाता है। वृहद्विष्णुपुराण में भी इसका प्रमाण है। यथा-

“ द्वौ च नित्यं द्विधारूपं तत्त्वतो नित्यमेकता। राममन्त्रे स्थिता सीता सीतामन्त्रे रघूत्तमः॥“

अथवा,

“ श्रीसीतारामनाम्नस्तु सदैक्यं नास्ति संशयः। इति ज्ञात्वा जपेद्यस्तु स धन्यो भाविनां नरः॥ (ब्रह्म रामायण)“।

परन्तु ध्यातव्य यह है कि यहाँ द्वैतापत्ति नहीं आ सकती क्योंकि हमारे यहाँ ब्रह्मके दो भेद कहे गये हैं- कारण ब्रह्म तथा कार्य ब्रह्म। साकेताधिपति भगवान् श्रीराम कारणब्रह्म हैं जो चित् लक्ष्मणजी और अचित् श्रीसीताजीसे विशिष्ट हैं तथा श्रीसीताजी कार्यब्रह्म हैं जो चित् लक्ष्मणजी तथा अचित् हनुमान्जीसे विशिष्ट हैं। इसीलिए विशिष्ट और विशिष्टका एकत्व ही विशिष्टाद्वैत है। श्रीसीताजीकी वन्दना तथा अर्चना वेदकालसे लेकर अद्यावधि अबाध गतिसे चल रही है। यहाँपर हमलोग श्रीनीलकंठ सूरी विरचित मंत्र रामायण तथा अन्य ग्रन्थों के आधारपर कुछेक उद्धरण देखेंगे। मूल उद्धरण वेदोंसे ही दिया गया है :-

१. अर्वाची सुभगे भव सीते वन्दामहे त्वा। यथा नः सुभगाससि यथा नः सुफलाससि॥ (ऋ.वे. ४।५७।६)

अर्थात्, हे सुभगे सीते! हम तुम्हारी वन्दना करते हैं जिससे तुम हमारे अनुकूल बनो, हमारे लिए ऐश्वर्य प्रदान करो और हमें शत्रु-विनाशरूप सुन्दर फल प्रदान करो।

२. इन्द्रः सीतां निगृह्णातु तां पूषानुयच्छतु। सा नः पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम्॥ (ऋ.वे. ४।५७।७)

अर्थात्, श्रीराम (श्रुतियोंमें इन्द्रका मुख्य अर्थ परमैश्वर्यशाली परमेश्वर श्रीराम ही है) सीताको ग्रहण करें और राजा जनक उन्हें श्रीरामको प्रदान करें। वह पयस्वती सीता, आनेवाले वर्षोंमें, हमें धन-धान्य प्रदान करती रहें। यही मन्त्र कुछ पाठभेदसे अथर्वेदमें भी प्राप्त होता है। देखें – इन्द्रः सीतां निगृह्णातु तां पूषाभिरक्षतु। सा नः पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम्॥ (अथ.वे. ३।१६।४)

३. सीते वन्दामहे त्वार्वाची सुभगे भव। यथा नः सुमना असो यथा नः सुफला भुवः॥ (अथ.वे. ३।१७।८)

अर्थात्, हे सीते! हम तुम्हारी वन्दना करते हैं। हे सुभगे! आप हमारे वैसे अभिमुख हों जिस प्रकारसे हम लोगोंके प्रति सुन्दर मनवाली हों एवं जिससे हम लोगोंको शोभन फल प्रदान करनेवाली हों।

४. घृतेन सीता मधुना समक्ता विश्वैर्देवैरनुमता मरुद्भिः। सा नः सीते पयसाभ्याववृत्स्वोर्जस्वती घृतवत् पिन्वमाना॥ (अथ.वे. ३।१७।९)

अर्थात्, सीता घृत अर्थात् उदक एवं मधु (अर्थात् मधुर रससे) सम्यक् सिक्त होती है। वह सीता सभी देवताओं और मरुतोंसे अङ्गीकृत होती है। हे सीते! उदकसे युक्त होकर घृतयुक्त अन्नका सिञ्चन करती हुई, बलवती होकर हमलोगोंके अभिमुख आसमन्तात् वर्तमान रहो।

५. सुमङ्गलीरियं वधूरिमां समेत पश्यत। सौभाग्यमस्यै दत्वायाथास्तं विपरेतन॥ (ऋ.वे. १०।८५।३३)

यह वधू (सीता) शुभ-कल्याणमयी है। इसे स्नेहपूर्वक अपनाओ। इसे सौभाग्य (पतिका प्रेम देकर) अपने घरमें सुखी रखो।(श्रीनीलकंठ सूरिके अनुसार यह वाक्य धनुर्भङ्गोपरान्त राजा जनकका रामके प्रति है।)

६. गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्यथासः। भगोऽर्यमा सविता पुरन्धिर्मह्यं त्वाऽदुर्गार्हपत्याय देवाः॥ (ऋ.वे. १०।८५।३६)

अर्थात्, (रामने सीताका पाणिग्रहण करते हुए कहा-) तुम्हारे सौभाग्यके लिए मैं तुम्हारा पाणिग्रहण करता हूँ। मेरे साथ जीवन व्यतीत करते हुए वृद्धावस्थाको प्राप्त करो। भग, अर्यमा, सविता तथा पुरन्धि देवताओंने मुझे गृहस्थधर्माचरणके लिए तुम्हें प्रदान किया है। अब प्रश्न यह उठता है कि यह सीताजी कौन हैं? ’सीता’ शब्दकी व्युत्पत्तिपर विचार करनेपर अनेक गूढ़ार्थ बोधगम्य होते हैं जिससे भगवान्श्रीरामकी इस शक्तिकी महिमा व्यञ्जित होती है और तब हमें इसका यथेष्ट उत्तर भी प्राप्त होता है। क. ’सूयते (चराचरं जगत्) इति सीता’ – अर्थात् जो चराचर जगत्को उत्पन्न करती है वह सीता है। ’षूङ् प्राणिप्रसवे’ धातुसे इसकी निष्पत्ति होती है। ख. ’ सवति इति सीता’– अर्थात् जो ऐश्वर्ययुक्त है वह सीता है। ’ षु प्रसवैश्वर्ययोः’ धातुसे इसकी निष्पत्ति होती है। ग. ’ स्यति इति सीता’– अर्थात् जो संहार करती है अथवा क्लेशोंका हरण करती है वह सीता है। ’ षोऽन्त कर्मणि’ धातुसे इसकी निष्पत्ति होती है। घ. ’ सुवति इति सीता’– अर्थात् जो सत्प्रेरणा देनेवाली है वह सीता है। ’ षू प्रेरणे’ धातुसे इसकी निष्पत्ति होती है। ङ. ’ सिनोति इति सीता’– अर्थात् जो बाँधनेवाली, वशमें करनेवाली है वह सीता है। ’षिञ् बन्धने’ धातुसे इसकी निष्पत्ति होती है। तभी तो :-

सीनोत्यतिगुणैः कान्तं सीयते तद्गुणैस्तु या। माधुर्यादिगुणैः पूर्णां तां सीतां प्रणमाम्यहम्॥

अथर्ववेदीय सीतोपनिषद्में इसीलिए तो कहा गया:-

“श्रीरामसान्निध्यवशाज्जगदानन्दकारिणी। उत्पत्तिस्थितिसंहारकारिणी सर्वदेहिनाम् ॥७॥“

तात्पर्य यह कि श्रीरामके सान्निध्यवशात् चराचर जगत्को उत्पन्न, पालन,तथा संहार करती हैं। एवम्

“सा सर्ववेदमयी सर्वदेवमयी सर्वलोकमयी सर्वकीर्तिमयी सर्वधर्ममयी सर्वाधारकार्य-कारणमयी महालक्ष्मीर्देवेशस्य भिन्नाभिन्नरूपा चेतनाचेतनात्मिका ब्रह्मस्थावरात्मा तद्गुणकर्म-विभागभेदाच्च्हरीरूपा देवर्षिमनुष्यगन्धर्वरूपा असुरराक्षसभूतप्रेतपिशाचभूतादिभूतशरीरूपा भूतेन्द्रियमनःप्राणरूपेति च विज्ञायते ॥१०॥”

भाव यह कि वह (सीताजी) सर्ववेदमयी, सर्वदेवमयी, सर्वलोकमयी, सर्वकीर्तिमयी, सर्वधर्ममयी, सर्वाधार, कार्य-कारणमयी, महालक्ष्मी, देवोंके देव, भिन्नाभिन्नस्वरूपा, चेतनाचेतनात्मिका, ब्रह्मसे स्थावर पर्यन्त सब कुछ, देवर्षि, मनुष्य, गन्धर्वरूपा; असुर, राक्षस, भूत-प्रेत, पिशाच, सर्वजीवधारीशरीरूपा, तथा जीवोंके इन्द्रिय, मन प्राणादि सब कुछ हैं। अर्थात् सर्वविरुद्धधर्माश्रय श्रीसीताजी हैं। और यही तो परब्रह्मका स्वरूप है। वस्तुतः श्रीरामजी तथा श्रीसीताजी परस्पर अभिन्न हैं। श्रीरामस्तवराजस्तोत्रके सप्तम श्लोकका जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्यका भाष्य स्पष्टतः उद्घोषित कर रहा है-

“श्रीरामपदेन सीताराम इत्येव समं अवगन्तव्यम्। श्रीशब्दः सीतायाः वाचकः।

अत, ’श्रीराम’ अर्थात् ’सीताराम।“ हमें आस्तिक भक्तोंसे निवेदित करते अपार हर्ष हो रहा है कि (इसी अवधारणाके अनुसार) जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्यने ऋग्वेदान्तर्गत श्रीसूक्तकी अद्भुत व्याख्या पूर्णतः सीता-परक ही की है जिसे उनका ग्रन्थ ’तुम पावक महँ करहु निवासा’ के पृष्ठ १८० से १९४ तक देखी जा सकती है। तभी तो हमारे रामजी सर्वत्र ’सीतासमारोपितवामभागम्’ ही हैं। जहाँ भी रामजी हैं वहाँ श्रीजी भी हैं। अतः श्रीरामजीका ध्यान अर्थात् सीतारामजीका ध्यान। प्रथम सीताजी तत्पश्चात् रामजी। तभी तो ध्यानके सम्बन्धमें नारदीय पुराणमें कहा है-

आदौ सीतापदं पुण्यं परमानन्ददायकम्। पश्चाच्छ्रीरामनामस्य अभ्यासं च प्रशस्यते॥

तभी किसीने ठीक ही कहा है:-

जनकनंदिनी पदकमल जब लगि हृदय न वास। रामभ्रमर आवत नहीं तब तक ताके पास॥

लेखक : डॉ. रामाधार शर्मा, पटना सम्पादक : अपूर्व अग्रवाल

स पिता स च मे माता स बन्धुः स च देवता । संसारमोहनाशाय तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥गुरु गीता ६६॥ न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः । न गुरोरधिकं ज्ञानं तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥गुरु गीता ७७॥

’गुरु’ शब्द बहुत ही गुरु और गम्भीर है, जिसकी व्याख्या करनेका सामर्थ्य हममें नहीं है। इसके गाम्भीर्यका अनुमान इसीसे सम्भवतः लग सकता है कि गुरुगीता एक स्वतंत्र ग्रंथ है जो वास्तव में स्कन्द पुराण (उत्तरखण्ड उमामहेश्वर संवाद अध्याय १-३) का एक भाग है। इसमें कुल ३५२ श्लोक हैं। सार रूपमें यदि कहा जाय तो गुरुगीता में भगवान शिव और पार्वती का संवाद है जिसमें पार्वती भगवान शिव से गुरु और उसकी महत्ता की व्याख्या करने का अनुरोध करती हैं। यथा-

भगवन् सर्वधर्मज्ञ व्रतानां व्रतनायकम्।ब्रूहि मे कृपया शम्भो गुरुमाहात्म्यमुत्तमम् ॥गु. गी. १४॥

इसमें, भगवान् शंकर, गुरु क्या हैं, उनका महत्व, गुरु की पूजा करने की विधि, गुरु गीता को पढने के लाभ आदि का वर्णन करते हैं। गुरु तत्त्व क्या है इसके उत्तरमें कहा गया –

जपस्तपो व्रतं तीर्थं यज्ञो दानं तथैव च । गुरुतत्त्वमविज्ञाय सर्वं व्यर्थं भवेत्प्रिये ॥ गु. गी. २४॥

अर्थात् हे पार्वती! गुरु तत्त्वको न जानकर जप, तप, व्रत, तीर्थ, यज्ञ तथा दान सब व्यर्थ हो जाता है। यहाँ तक कि

शिवपूजारतो वापि विष्णुपूजारतोऽथवा । गुरुतत्त्वविहीनश्चेत्तत्सर्वं व्यर्थमेव हि ॥ गु. गी. १९२॥

तात्पर्य यह कि आप गुरु-तत्त्व विहीन होकर शिवजीकी पूजामें रत हों अथवा विष्णुजीकी पूजामें वह सब व्यर्थ है। प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों? तो कहते हैं कि गुरुजीकी सेवा ही ’गया’ तीर्थ है उनका देह अक्षय वट है उनके पाद ही विष्णुपाद हैं –

गुरुसेवा गया प्रोक्ता देहः स्यादक्षयो वटः। तत्पादं विष्णुपादं स्यात् तत्र दत्तमनन्तकम् ॥ गु. गी. ३८॥

गुरुका स्मरण और ध्यानकी निष्ठा कैसी होनी चाहिए-

गुरुमूर्ति स्मरेन्नित्यं गुरुर्नाम सदा जपेत् । गुरोराज्ञां प्रकुर्वीत गुरोरन्यं न भावयेत् ॥ गुरुवक्त्रे स्थितं ब्रह्म प्राप्यते तत्प्रसादतः । गुरोर्ध्यानं सदा कुर्यात् कुलस्त्री स्वपतिं यथा ॥ गु. गी. ३९-४०॥

अतः गुरुदेव भगवान्की सम्यक पूजा करनी चाहिए क्योंकि-

गुरुरेको जगत्सर्वं ब्रह्मविष्णुशिवात्मकम् । गुरोः परतरं नास्ति तस्मात्सम्पूजयेद्गुरुम् ॥ सर्वश्रुतिशिरोरत्नविराजितपदाम्बुजम् । वेदान्तार्थप्रवक्तारं तस्मात् सम्पूजयेद्गुरुम् ॥ गु. गी.५३- ५४॥

यह तो सिद्धान्त रूपसे गुरुगीतामें समाहित है। परन्तु व्यवहार रूपसे जब तक उपरोक्त गुणोंका साक्षात्कार नहीं हो जाता तबतक परतीति तथा प्रीति नहीं हो पाती। गोस्वामीपादने कहा-

जाने बिनु न होइ परतीति। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती॥ (रा.च. म. ७।८९। ७)।

इस सिद्धान्त (सर्वश्रुतिशिरोरत्न) की सम्पुष्टिके लिए एक बहुत ही छोटा-सा संस्मरण गुरुदेवके पादपद्ममें समर्पण करनेकी आज्ञा चाहूँगा। पुण्यारण्य ही अब पुनौरा कहा जाता है। और वह पुनौरा है श्रीसीतारामजीके गुण-ग्राम अर्थात् कथा। गोस्वामीपाद कहते हैं:-

सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कवीश्वरकपीश्वरौ॥ (रा. च. मा.-१।मंगला. ४)

श्रीसीतारामजीके गुणग्राम अर्थात् कथा रुपी पुण्यारण्य (पुनौरा)में विहार करनेवाले विशुद्ध विज्ञानी श्री हनुमान् जी महाराज और श्री वाल्मीकिजी की वन्दना करता हूँ। इस पुनौरामें श्रीसीतारामजीकी कथा, विगत वर्षोंकी भाँति इस वर्ष भी पूरे हर्षोल्लासके साथ दिनाङ्क १९-४-२०१५ से २७-४-२०१५ तक हुयी। प्रत्येक वर्ष ऐसा लगता है कि इस वर्षकी कथा तो अद्भुत हुयी अर्थात् किन्हीं भी दो कथाओंकी तुलना नहीं की जा सकती। और ऐसा लगे भी क्यों नहीं? वस्तुतः जब कथा प्रसादकी सरलता और तरलता, उसका सर्वकालिक प्रवाह (जैसेकी मन्दाकिनी का प्रवाह सर्वकालिक होता है), उसका अनसूयापन (मन्दाकिनी श्री अनसूयाजी ने अपने तपोबलसे लायीं- अत्रिप्रिया निज तपबल आनीं -रा.च.मा. २।१३२।५-६) इत्यादि अनन्त गुणगणराशिकी तुलना भला हो भी तो कैसे? और वह भी तब जब यह कथा चित्रकूट पीठाधीश्वरके श्रीमुखसे निकली हो। आज मानसजी पर अनेकों टीकायें उपलब्ध हैं (मानस पीयूष, गूढार्थ चन्द्रिका इत्यादि)। परन्तु वह तोष कहाँ जो गुरुवरकी कथासे प्राप्त होती है। इस कथाकी विशेषता ही यह रही कि जब नव्य-नव्य भावोंके साथ गुरुदेव ने मानसजी के किसी भी पंक्तिकी शब्दशः व्याख्या करते थे तो ऐसा प्रतीत होता था जैसे समय थम सा गया हो। समयका ज्ञान तो तब होता था जब गुरुजीका संकेत होता था कि अब कथा विश्रामकी ओर है, आरती की जाय। पहले तो मैं समझता था कि यदा-कदा अतिशयोक्तिमें लोग कह देते हैं – हरि अनन्त हरिकथा अनन्ता (रा.च्. मा. १।१४०।५)। अर्थात्, हरि अनन्त हैं और प्रत्येक हरिकी कथाएँ भी अनन्त हैं। लगता था प्रत्येक हरिकी कथाएँ अनन्त कैसे होंगी? और उत्तर मिला। गुरुजी का प्रवचन हो रहा था-“ चातक कोकिल कीर चकोरा।- रा.च्. मा. १।२२७।६”। और कथा-रसिक लोग जानते हैं कि उस दिनका पूरा प्रवचन मात्र इसी चौपाइपर बीत गया। अगले दिन प्रवचन हो रहा था-“चहुँ दिशि चितइ पूँछि मालीगन –रा.च्. मा. १।२२८।१” । और आपको बता दूँ कि उस दिनका पूरा प्रवचन मात्र इन्हीं शब्दोंपर बीत गया- “चहुँ दिशि चितइ”। दूसरे दिन, जानकी कुंड परिक्रमाके समय, मैंने गुरुवरसे विनोदमें प्रार्थना किया कि कल तो ’पूछते ही रह गये गुरुजी’। उत्तर कितना सटीक था- हमारे राघवजी मर्यादा पुरुषोत्तम हैं! और् दूसरे दिनकी कथा पुनः “चहुँ दिशि चितइ” से प्रारम्भ होकर “पूँछि मालीगन “ पर विश्राम लिया। अब तो ’हरिकथा अनन्ता’ समझमें आने लगी। तभी तो गोस्वामीपाद ने कहा :-

गुरु बिबेकसागर जग जाना। जिनहिं बिश्व करबदर समाना॥ (रा. च. मा. २।१८२।१)

गुरुजी प्रायशः कहते हैं कि कथाकी सफलता उपस्थित भीड़से नहीं होती वरन् कथा-रसिकोंके लिए कितना हृदयग्राही हुआ। अब आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं कि गुरुवरके प्रवचनोंका लाभ सतत रूपसे जिला न्यायालयके माननीय न्यायाधीशोंने भी सपरिवार उठाया। और यहाँ तक कि उनलोगोंने प्रातःकाल, जानकी कुंड परिक्रमाके समय, गुरुवरसे मिलनेकी अपनी इच्छा व्यक्त की। और गुरुदेवकी सहृदयताने इसे सहर्ष स्वीकार भी किया। कितनी सरलता है गुरुदेव की। हमारे गुरुदेव सन्देह-समुद्रको नष्ट करने हेतु बड़वानल हैं तथा जन्म-मृत्युके भयको मिटानेमें परम समर्थ हैं जो कि गुरुगीताके अनुसार गुरुका लक्षण है:-

सर्वसन्देहसन्दोहनिर्मूलनविचक्षणः । जन्ममृत्युभयघ्नो यः स गुरुः परमो मतः ॥गु. गी. २७९॥

बहुत जन्मोंके पुण्यके फलसे ऐसे महान् गुरुकी प्राप्ति होती है जिसे पाकर शिष्य पुनः संसार-बन्धनमें नहीं पड़ता:-

बहुजन्मकृतात् पुण्याल्लभ्यतेऽसौ महागुरुः । लब्ध्वाऽमुं न पुनर्याति शिष्यः संसारबन्धनम् ॥ गु. गी. २८०॥

अतएव-

श्रीमत्परं ब्रह्म गुरुं स्मरामि श्रीमत्परं ब्रह्म गुरुं भजामि । श्रीमत्परं ब्रह्म गुरुं वदामि श्रीमत्परं ब्रह्म गुरुं नमामि ॥ -गु. गी. ११०॥

लेखक : डॉ. रामाधार शर्मा, पटना सम्पादक : अपूर्व अग्रवाल