एक भावुक शिष्य द्वारा विरचित जगद्गुरु रामभद्राचार्य जी की आरती

गुरुदेव की जन्मभूमि जौनपुर के मूल निवासी उनके शिष्य अपने हृदय के भाव आरती के रूप में व्यक्त करते हैं और लिखते हैं : “कृपया मेरे प्रेम को विनोद भाव से ही स्वीकार कर लीजिएगा, जिससे मेरा भाव भी रह जायेगा और आपका विनोद भी हो जाएगा। गुरुवर अधिक क्या कहूँ आपसे, आप सर्वज्ञ हैं। “

आरती श्री गुरु रामभद्र जी की , परम पुनीत ज्ञान अविरल की .

अविरल प्रेम भक्ति की धारा, जासु वचन कलि पवन कुमारा , चित्रकूट मन्दाकिनी धारा , भव तारन जस गंग-जमुन सी (१)

धर्म ध्वजा जसु दंड शरीरा, मर्म भेद श्रुति वेद प्रवीना, सो सब विधि श्री राम अधीना , भक्ति मूर्ति जनु भरत प्रेम की (२)

चरण तेज सत भानु प्रकाशा , परसत होए तमनिशि कर नाशा, जासु धूलि कण “अनिल” सुबासा, मंगल मूल सुभ चरण राम की (३)

करत शेष मुनि शारद गाना, ब्रह्म रूप गुरु ब्रह्म समाना जासु चरण तल ईश सुजाना , शरणागति सब विधि गुरुवर की (४)

निर्गुण ब्रह्म सगुन जो होई, चरन चिन्ह राखे उर सोई, सोई गुरुचरण ज्ञान उर माही , “गिरिधर” पग रज “अनिल” सीस की (५)

सीताराम जय सीताराम सीताराम जय सीताराम

रचयिता : अनिल पाण्डेय सम्पादक : अपूर्व अग्रवाल