अवतारण पति राम

वेद में श्रीरामोपासना की प्राचीनता बतायी गयी है। ऋग्वेद के १०४१७ मन्त्रों से १५५ मन्त्रों, एक मन्त्र वाजसनेयि संहिता से तथा एक अन्यत्र संहिता से लेकर, नीलकण्ठ-सूरि ने ’मन्त्ररामायण’ नामक एक प्रख्यात रचना की थी जिस पर’मन्त्ररहस्य-प्रकाशिका’ नामक स्वोपज्ञ व्याख्या भी की थी। इससे प्रमाणित होता है कि सृष्टि के प्राचीन काल से ही श्रीरामोपासना सतत चली आ रही है। अब इस रामोपासना की अविच्छिन्नता पर विचार करते हैं। उपनिषदों में भी श्रीराम-मन्त्र का वर्णन आया है।श्रीरामतापिनी उपनिषद की चतुर्थ कण्डिका-

“श्रीरामस्यमनुंकाश्यांजजापवृषभध्वजः। मन्वन्तरसहस्रैस्तुजपहोमार्चनादिभिः॥

-रा. ता. उ. ।४।१॥“

में आया है। काशी में श्रीराममन्त्र को शिवजी ने जपा, तब भगवान् श्रीरामचन्द्र प्रसन्न होकर बोले:-

“त्वत्तोवाब्रह्मणोवापियेलभन्तेषडक्षरम्।जीवन्तोमन्त्रसिद्धाःस्युर्मुक्तामांप्राप्नुवन्तिते॥

-रा. ता. उ. ।४।७॥“

अर्थात्- हे शिवजी! आप से या ब्रह्मा से जो कोई षडक्षर-मन्त्र को लेंगे, वे मेरे धाम को प्राप्त होंगे। पुराणों,पाञ्चरात्रादि ग्रन्थों में भी रामोपासना का विधिवत् वर्णन पाया जाता है। अगस्त्यसंहिता, जो रामोपासना का प्राचीनतम आगम ग्रन्थ है, के १९ वें अध्याय तथा २५ वें अध्याय में भी रामोपासना का वर्णन पाया जाता है। बृहद्ब्रह्मसंहिता के द्वितीय पाद अध्याय ७, पद्म पुराण उत्तर खण्ड अध्याय २३५ तथा बृहन्नारदीयपुराण पूर्व भाग के अध्याय ३७ से यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रीरामोपासना तीनों युगों में होती आयी है। इस तथ्य से सम्बन्धित कुछ वाक्यों का अब हम सिंहावलोकन करते हैं। महारामायण (और ऐसे और भी ग्रन्थों में) तो स्पष्टतः- श्रीरामजी ही स्वयं भगवान् हैं ऐसा कहा है:-

“भरणःपोषणाधारःशरण्यःसर्वव्यापकः।करुणःषड्गुणैःपूर्णोरामस्तुभगवान्स्वयं॥

-(महारामायण)”

इसी सन्दर्भ में याज्ञवल्क्य संहिता की यह पंक्ति भी उल्लेखनीय है:-

पूर्णःपूर्णावतारश्चश्यामोरामोरघूत्तमः।अंशानृसिंहकृष्णाद्याराघवोभगवान्स्वयं॥

-(याज्ञवल्क्यसं., ब्रह्मसंहिता)

पुराणों में तिलक स्वरूप श्रीमद्भागवतम् में इस से सम्बद्ध कुछेक प्रसङ्ग देखें:-

किम्पुरुषे वर्षे भगवन्तमादिपुरुषं लक्ष्मणाग्रजं सीताभिरामं रामं तच्चरणसन्निकर्षाभिरतः परमभागवतो हनुमान् सह किम्पुरुषैरविरतभक्तिरुपास्ते ॥

-(श्रीमद्भा. ५।१९।१॥)

(अर्थात्, किम्पुरुष वर्ष में श्रीलक्ष्मणजी के बड़े भाई आदिपुरुष, सीताहृदयाभिराम भगवान् श्री रामजी के चरणों की सन्निधि के रसिक परम भागवत हनुमान् जी अन्य किन्नरों के साथ अविचल भक्तिभाव से उनकी उपासना करते हैं।) आगे श्री शुकाचार्यमहाराज श्रीरामजी को परब्रह्म तथा सबसे परे मानते हुए छः बार ’नमः’ शब्द (षडैश्वर्य युक्त सूचित करते हुए) एवं नौ विशेषणों का प्रयोग करके यह सिद्ध किया है कि भगवान् श्री राम पूर्ण ब्रह्म हैं:-

ॐ नमो भगवते उत्तमश्लोकाय नम आर्यलक्षणशीलव्रताय नम उपशिक्षितात्मन उपासितलोकाय नमः साधुवादनिकषणाय नमो ब्रह्मण्यदेवाय महापुरुषाय महाराजाय नम इति ॥

-(श्रीमद्भा. ०५.१९.००३ ॥)

और आगे तो कह ही दिया –

“सीतापतिर्जयतिलोकमलघ्नकीर्तिः (श्रीमद्भा. ११।४।२१)” ।

इतना ही नहीं। योगीश्वर करभाजन राजा निमि को यह बताते हैं कि कलियुग में भगवान् की स्तुति इस प्रकार करते हैं-

ध्येयं सदा परिभवघ्नमभीष्टदोहं तीर्थास्पदं शिवविरिञ्चिनुतं शरण्यम् । भृत्यार्तिहं प्रणतपाल भवाब्धिपोतं वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम् ॥

– (श्रीमद्भा. ११.०५.०३३ ॥)

त्यक्त्वा सुदुस्त्यजसुरेप्सितराज्यलक्ष्मीं धर्मिष्ठ आर्यवचसा यदगादरण्यम् । मायामृगं दयितयेप्सितमन्वधावद् वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम् ॥

– (श्रीमद्भा. ११.०५.०३४ ॥)

(अर्थात्, प्रभो आप शरणागत रक्षक हैं। आपके चरणारविन्द सदा-सर्वदा ध्यान-करने योग्य, माया-मोहादि से उत्पन्न सांसारिक पराजयों को समाप्त करने वाले, तथा भक्तों को समस्त अभीष्ट प्रदान करने वाले कामधेनु स्वरूप हैं। वे तीर्थों को भी तीर्थ बनाने वाले स्वयं तीर्थ स्वरूप हैं; शिव, ब्रह्मा आदि देवता उन्हें नमस्कार करते हैं। सेवकों की समस्त आर्ति और विपत्ति के नाशक तथा संसार-सागर से पार जाने के लिए जहाज हैं। महापुरुष! मैं आपके चरणों की वन्दना करता हूँ। भगवन्! पिताजी के वचनों से देवताओं द्वारा वाञ्छनीय और दुस्त्यज राज्यलक्ष्मी को छोड़कर आपके चरण कमलवन-वन घूमते रहे। आप धर्मनिष्ठता की सीमा हैं। हे महापुरुष! अपनी प्रेयसी के चाहने पर जान-बूझकर मायामृग के पीछे दौड़्ते रहे।प्रभो! मैं आपकी उन्हीं चरणों की वन्दना करता हूँ।) ध्यातव्य है कि यह ध्यान किसी और का नहीं वरन् अशरण-शरण सीता पति भगवान् राम का है। अर्थात् भागवतकार का स्पष्ट निर्देश है कि कलियुग में तो केवल भगवान् श्री राम की ही स्तुति वाञ्छनीय है। पद्मपुराण में पार्वतीजी शिवजी से यह प्रश्न करती हैं:-

विष्णोःसहस्रनामैतत्प्रत्यहंवृषभध्वज ।नाम्नैकेनतुयेनस्यात्तत्फलंब्रूहिमेप्रभो ॥

– (पद्मपु. उत्तरखण्ड ७१।३३०)

तो महादेवजी का उत्तर है-

रामरामेतिरामेतिरमेरामेमनोरमे ।सहस्रनामतत्तुल्यंरामनामवरानने ॥

– (पद्मपु. उत्तरखण्ड ७१।३३१, २५४।२२)

स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों? तो इसका भी उत्तर पद्म-पुराण में ही है-

विष्णोरेकैकनामैवसर्ववेदाधिकंमतम् ।तादृङ्नामसहस्राणिरामनामसमानिच ॥ यत्फलंसर्ववेदानांमंत्राणांजपतःप्रिये ।तत्फलंकोटिगुणितंरामनाम्नैवलभ्यते ॥

– (पद्मपु. उत्तरखण्ड२५४।२७-२८)

अर्थात्, श्रीविष्णुभगवान् के एक-एक नाम भी सम्पूर्ण वेदों से अधिक माहात्म्यशाली माना गया है।ऐसे एक सहस्रनामों के तुल्य रामनाम के समान है। हे प्रिये (पार्वती)! समस्त वेदों और सम्पूर्ण मन्त्रों के जप का जो फल प्राप्त होता है, उसके अपेक्षा कोटि गुणित फल रामनाम से ही प्राप्त हो जाता है। नारद पुराण तो यहाँ तक कहता है किसी भी मन्त्रों (गाणपत्य, सौर, शाक्त, शैव एवं वैष्णव) में वैष्णव मन्त्र श्रेष्ठ है। और वैष्णव-मन्त्रों से भी राम-मन्त्र का फल अधिक है। तथा गाणपत्यादि मन्त्रों से तो कोटि-कोटि गुणा अधिक है। और सभी राममन्त्रों से भी श्रेष्ठ है षडक्षरराम-मन्त्र :-

“अथ रामस्य मनवो वक्ष्यन्ते सिद्धिदायकाः। येषामाराधनान्मर्त्यास्तरन्ति भवसागरम् ॥ सर्वेषु मन्त्रवर्येषु श्रेष्ठं वैष्णवमुच्यते ।गाणपत्येषु सौरेषु शाक्तशैवेष्वभीष्टदम् ॥ वैष्णवेष्वपि मन्त्रेषु राममन्त्राः फलाधिकाः। गाणपत्यादिमन्त्रेभ्यः कोटिकोटिगुणाधिकाः ॥ विष्णुशय्यास्थितो वह्निरिन्दुभूषितमस्तकः ।रामाय हृदयान्तोऽय महाघौघविनाशनः ॥ सर्वेषु राममन्त्रेषु ह्यतिश्रेष्ठः षडक्षरः ।ब्रह्महत्या सहस्राणि ज्ञाताज्ञातकृतानि च ॥“ – (नारदपुराण।पूर्वभाग।तृतीयपाद।अध्याय ७३।१-५)

पद्म-पुराण और राम-रक्षास्तोत्र भी इस तथ्य पर अपनी सहमति इस प्रकार देते हैं:-

“श्रीरामेतिपरंजाप्यंतारकंब्रह्मसंज्ञकम्।ब्रह्महत्यादिपापघ्नमितिवेदविदोविदुः॥“

– (रामरक्षास्तोत्र)

“षडक्षरंमहामंत्रंतारकंब्रह्मउच्यते ।येजपंतिहिमांभक्त्यातेषांमुक्तिर्नसंशयः ॥ इंदीवरदलश्यामंपद्मपत्रविलोचनम् ।शंखांगशार्ङ्गेषुधरंसर्वाभरणभूषितम् ॥ पीतवस्त्रंचतुर्बाहुंजानकीप्रियवल्लभम् ।श्रीरामायनमइत्येवमुच्चार्य्यंमन्त्रमुत्तमम् ॥ षडक्षरंमहामंत्रंरघूणांकुलबर्द्धनम् ।जपन्वैसततंदेविसदानंदसुधाप्लुतम् । सुखमात्यंतिकंब्रह्मह्यश्नामसततंशुभे ॥

-(पद्मपु. उत्तरखण्ड २३५।४३-४५,६३)”

अगस्त्यसंहिता के अनुसार-

सर्वेषामवतारीनामवतारीरघूत्तमः।रामपादनखज्योत्सनापरब्रह्मेतिगीयते॥

और वाराह संहिता तो डिम-डिम घोष कर कह रहा है –

“नारायणोऽपिरामांशःशङ्खचक्रगदाधरः॥“

भगवान् श्री राम की सर्वश्रेष्ठ-भजनीयता सतत रूप से आज भी दर्शनीय है।आद्यजगद्गुरुशंकराचार्य अपने रामभुजंगप्रयास्तोत्र में भगवान् श्री राम की श्लाघनीय स्तुति की है जनके कुछ श्लोक उद्धृत किये जा रहे हैं :-

“विशुद्धंपरंसच्चिदानन्दरूपंगुणाधारमाधारहीनंवरेण्यम्। महान्तंविभान्तंगुहान्तंगुणान्तंसुखान्तंस्वयंधामरामंप्रपद्ये॥१॥“

(अर्थात्, जो शुद्ध सच्चिदानन्द परमात्मस्वरूप हैं, सर्वथा निराधार होते हुए भी सभी गुणों के आधार हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं, सबसे महान् हैं, प्रत्येक प्राणी के हॄदय-गुहा में विराजमान हैं, अनन्तानन्त गुणों की सीमा हैं और सर्वोपरि सुखस्वरूप हैं, उन स्वप्रकाश स्वरूप भगवान् श्री राम की मैं शरण ग्रहण करता हूँ।)

“शिवंनित्यमेकंविभुंतारकाख्यंसुखाकारमाकारशून्यंसुमान्यम्। महेशंकलेशंसुरेशंपरेशंनरेशंनिरीशंमहीशंप्रपद्ये॥२॥”

(अर्थात्, जो परम कल्याण-स्वरूप, त्रिकाल में नित्य, सर्वसमर्थ, तारक राम के नाम से प्रसिद्ध, सुख के निधान, आकार शून्य, सर्वमान्य, ईश्वर के भी ईश्वर, सम्पूर्ण कलाओं के स्वामी परन्तु उनका स्वामी कोई नहीं, सम्पूर्ण मनुष्यों के स्वामी, पृथ्वी के भी स्वामी पर उनका कोई शासक नहीं है; मैं उन भगवान् श्री राम की शरण लेता हूँ।)

“पुरःप्राञ्जलीनाञ्जनेयादिभक्तान्स्वचिन्मुद्रयाभद्रयाबोधयन्तम्। भजेऽहंभजेऽहंसदारामचन्द्रंत्वदन्यंनमन्येनमन्येनमन्ये॥७॥“

(अर्थात्, भगवान् श्री राम के समक्ष अञ्जनी नन्दन हनुमान् आदि भक्त अञ्जलि बाँधे खड़े हैं और वे उन्हें अपनी चिन्मय मुद्रा से कल्याणकारी उपदेश दे रहे हैं। मैं ऐसे भगवान् श्री रामचन्द्र का सदा बार-बार भजन करता हूँ तथा आपको छोड़कर त्रिकाल (जाग्रत्, स्वप्न तथा सुषुप्ति) में भी किसी अन्य को नहीं मानता। श्रीयामुनाचार्य (जो आद्यजगद्गुरुरामानुजाचार्य के रामभक्ति के वास्तविक शिक्षा-दीक्षा गुरु माने जाते हैं) ने अपने ’स्तोत्ररत्नम्’ में लिखा है :-

“ननुप्रपन्नःसकृदेवनाथतवाहमस्मीतिचयाचमानः।तवानुकम्प्यःस्मरतःप्रतिज्ञांमदेकवर्जंकिमिदंव्रतंते॥“

अर्थात्, हे नाथ आप अपनी उस प्रतिज्ञा (मैं आपका हूँ यह कहकर यदि कोई भी मेरी शरण में एक बार आ जाता है तो मैं उसे सभी जीवों से तात्कालिक एवम् आत्यन्तिक अभय प्रदान कर देता हूँ) का स्मरण करें तथा मुझपर अनुकम्पा कर अपना लें अन्यथा क्या यह शरणागतपालक-व्रत मुझ अकिञ्चन को छोड़कर किया गया? और तो और । अब्दुरर्हीमखानखाना की दीनता भरी प्रार्थना हृदय को विगलित कर भगवान् श्री राम का ध्यान साकार तो करता ही है:-

“अहल्यापाषाणःप्रकृतिपशुरासीत्कपिचमूर्गुहोऽभूच्चण्डालस्त्रितयमपिनीतंनिजपदम्। अहंचित्तेनाश्मापशुरपितवार्चादिकरणेक्रियाभिश्चाण्डालोरघुवरनमामुद्धरसिकिम्॥“

(अर्थात् अहल्या पत्थर की शिला थी और वानर सेना स्वभाव से पशु समूह था। गुह (निषादराज) चाण्डाल था। इन तीनों को आपने अपने पद मे ले गये। मैं चित्त से पत्थर, आपके पुण्यराशि से विमुख निरापशु और अपने कर्मों से चाण्डाल हूँ। क्या मेरा उद्धार नहीं करोगे?) उपरोक्त शास्त्रीय सन्दर्भों के आलोक में यह स्पष्ट रूपेण प्रमाणित हो रहा है कि संप्रदाय-परम्परा से निरपेक्ष चारों युगों में द्विभुज भगवान् श्री राम की अविच्छिन्न उपासना होती रही है। तभी तो कलिपावनावतार हुलसी-हर्षवर्धन गोस्वामी तुलसीदासजी ने उद्घोषणा की-

“शम्भुविरंचिविष्णुभगवाना।उपजहिंजासुअंशतेनाना॥“

-(रामचरितमानस-१।१४४।६)

अब यदि अपने सम्प्रदाय का अभिमत देखना चाहें तो जगद्गुरुआद्यरामानन्दाचार्यजी ने अपने श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर में स्पष्टतः कहा कि:-

“द्विभुजस्यैवरामस्यसर्वशक्तेःप्रियोत्तम।ध्यानमेवविधातव्यंसदारामपरायणैः॥५९॥“

अर्थात्, हे प्रियोत्तम! श्रीराम परायणों द्वारा सर्वदा सर्वशक्तिमान् दो भुजाओं वाले श्रीराम जी का ही इस प्रकार ध्यान करना चाहिये। तब यह कहने को विवश कर देता है-

अवधधाम धामाधिपति अवतारणपति राम। सकलसिद्धपति जानकी दासनपति हनुमान।।

लेखक : डॉ. रामाधार शर्मा, पटना सम्पादक : अपूर्व अग्रवाल