जनकनंदिनी पदकमल जब लगि हृदय न वास।

अपने रामानन्दीय विशिष्टाद्वैत सम्प्रदायमें चित्, अचित् और तद्विशिष्ट तीन तत्त्व माने गये हैं।

“सूर्यमण्डल मध्यस्थं रामं सीतासमन्वितम् –श्रीरामस्तवराज स्तोत्रम् ॥५०॥“

में श्रीरामको निरंतर जगज्जननी जनकनंदिनी माँ श्रीसीतासे समन्वित कहा गया है।अर्थात् श्रीरामजी श्रीसीताजीसे कभी पृथक हो ही नहीं सकते। भगवान् श्रीरामजी सच्चिदानन्द हैं तथा श्रीसीताजी संविदानन्द। दोनों ही परस्पर अभिन्न है। यथा-

“ रामः सीता जानकी रामचन्द्रो नित्याखण्डो ये च पश्यन्ति धीराः। -(अथर्व. )”

अर्थात् श्रीराम ही श्रीसीता हैं तथा श्रीसीता ही श्रीराम हैं, दोनोंमें कोई भेद नहीं है।इसी तथ्यके समर्थनमें सदाशिव संहिता का यह श्लोक भी द्रष्टव्य है-

“रामस्सीता जानकी रामचन्द्रः नाणुर्भेदो ह्येतयोरिति कश्चित्।

संतो मत्वा तत्त्वमेतद्धि बुद्धवा पारं जाताः संसृतेर्मृत्युकालात्॥“

एक शुक्लतेजोऽवच्छिन्न ब्रह्म हैं और एक श्यामतेजोऽवच्छिन्न ब्रह्म है। इसीलिए श्रीसीताजीको भी विशिष्ट तत्त्व परब्रह्म तत्त्व ही माना जाता है। वृहद्विष्णुपुराण में भी इसका प्रमाण है। यथा-

“ द्वौ च नित्यं द्विधारूपं तत्त्वतो नित्यमेकता। राममन्त्रे स्थिता सीता सीतामन्त्रे रघूत्तमः॥“

अथवा,

“ श्रीसीतारामनाम्नस्तु सदैक्यं नास्ति संशयः। इति ज्ञात्वा जपेद्यस्तु स धन्यो भाविनां नरः॥ (ब्रह्म रामायण)“।

परन्तु ध्यातव्य यह है कि यहाँ द्वैतापत्ति नहीं आ सकती क्योंकि हमारे यहाँ ब्रह्मके दो भेद कहे गये हैं- कारण ब्रह्म तथा कार्य ब्रह्म। साकेताधिपति भगवान् श्रीराम कारणब्रह्म हैं जो चित् लक्ष्मणजी और अचित् श्रीसीताजीसे विशिष्ट हैं तथा श्रीसीताजी कार्यब्रह्म हैं जो चित् लक्ष्मणजी तथा अचित् हनुमान्जीसे विशिष्ट हैं। इसीलिए विशिष्ट और विशिष्टका एकत्व ही विशिष्टाद्वैत है। श्रीसीताजीकी वन्दना तथा अर्चना वेदकालसे लेकर अद्यावधि अबाध गतिसे चल रही है। यहाँपर हमलोग श्रीनीलकंठ सूरी विरचित मंत्र रामायण तथा अन्य ग्रन्थों के आधारपर कुछेक उद्धरण देखेंगे। मूल उद्धरण वेदोंसे ही दिया गया है :-

१. अर्वाची सुभगे भव सीते वन्दामहे त्वा। यथा नः सुभगाससि यथा नः सुफलाससि॥ (ऋ.वे. ४।५७।६)

अर्थात्, हे सुभगे सीते! हम तुम्हारी वन्दना करते हैं जिससे तुम हमारे अनुकूल बनो, हमारे लिए ऐश्वर्य प्रदान करो और हमें शत्रु-विनाशरूप सुन्दर फल प्रदान करो।

२. इन्द्रः सीतां निगृह्णातु तां पूषानुयच्छतु। सा नः पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम्॥ (ऋ.वे. ४।५७।७)

अर्थात्, श्रीराम (श्रुतियोंमें इन्द्रका मुख्य अर्थ परमैश्वर्यशाली परमेश्वर श्रीराम ही है) सीताको ग्रहण करें और राजा जनक उन्हें श्रीरामको प्रदान करें। वह पयस्वती सीता, आनेवाले वर्षोंमें, हमें धन-धान्य प्रदान करती रहें। यही मन्त्र कुछ पाठभेदसे अथर्वेदमें भी प्राप्त होता है। देखें – इन्द्रः सीतां निगृह्णातु तां पूषाभिरक्षतु। सा नः पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम्॥ (अथ.वे. ३।१६।४)

३. सीते वन्दामहे त्वार्वाची सुभगे भव। यथा नः सुमना असो यथा नः सुफला भुवः॥ (अथ.वे. ३।१७।८)

अर्थात्, हे सीते! हम तुम्हारी वन्दना करते हैं। हे सुभगे! आप हमारे वैसे अभिमुख हों जिस प्रकारसे हम लोगोंके प्रति सुन्दर मनवाली हों एवं जिससे हम लोगोंको शोभन फल प्रदान करनेवाली हों।

४. घृतेन सीता मधुना समक्ता विश्वैर्देवैरनुमता मरुद्भिः। सा नः सीते पयसाभ्याववृत्स्वोर्जस्वती घृतवत् पिन्वमाना॥ (अथ.वे. ३।१७।९)

अर्थात्, सीता घृत अर्थात् उदक एवं मधु (अर्थात् मधुर रससे) सम्यक् सिक्त होती है। वह सीता सभी देवताओं और मरुतोंसे अङ्गीकृत होती है। हे सीते! उदकसे युक्त होकर घृतयुक्त अन्नका सिञ्चन करती हुई, बलवती होकर हमलोगोंके अभिमुख आसमन्तात् वर्तमान रहो।

५. सुमङ्गलीरियं वधूरिमां समेत पश्यत। सौभाग्यमस्यै दत्वायाथास्तं विपरेतन॥ (ऋ.वे. १०।८५।३३)

यह वधू (सीता) शुभ-कल्याणमयी है। इसे स्नेहपूर्वक अपनाओ। इसे सौभाग्य (पतिका प्रेम देकर) अपने घरमें सुखी रखो।(श्रीनीलकंठ सूरिके अनुसार यह वाक्य धनुर्भङ्गोपरान्त राजा जनकका रामके प्रति है।)

६. गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्यथासः। भगोऽर्यमा सविता पुरन्धिर्मह्यं त्वाऽदुर्गार्हपत्याय देवाः॥ (ऋ.वे. १०।८५।३६)

अर्थात्, (रामने सीताका पाणिग्रहण करते हुए कहा-) तुम्हारे सौभाग्यके लिए मैं तुम्हारा पाणिग्रहण करता हूँ। मेरे साथ जीवन व्यतीत करते हुए वृद्धावस्थाको प्राप्त करो। भग, अर्यमा, सविता तथा पुरन्धि देवताओंने मुझे गृहस्थधर्माचरणके लिए तुम्हें प्रदान किया है। अब प्रश्न यह उठता है कि यह सीताजी कौन हैं? ’सीता’ शब्दकी व्युत्पत्तिपर विचार करनेपर अनेक गूढ़ार्थ बोधगम्य होते हैं जिससे भगवान्श्रीरामकी इस शक्तिकी महिमा व्यञ्जित होती है और तब हमें इसका यथेष्ट उत्तर भी प्राप्त होता है। क. ’सूयते (चराचरं जगत्) इति सीता’ – अर्थात् जो चराचर जगत्को उत्पन्न करती है वह सीता है। ’षूङ् प्राणिप्रसवे’ धातुसे इसकी निष्पत्ति होती है। ख. ’ सवति इति सीता’– अर्थात् जो ऐश्वर्ययुक्त है वह सीता है। ’ षु प्रसवैश्वर्ययोः’ धातुसे इसकी निष्पत्ति होती है। ग. ’ स्यति इति सीता’– अर्थात् जो संहार करती है अथवा क्लेशोंका हरण करती है वह सीता है। ’ षोऽन्त कर्मणि’ धातुसे इसकी निष्पत्ति होती है। घ. ’ सुवति इति सीता’– अर्थात् जो सत्प्रेरणा देनेवाली है वह सीता है। ’ षू प्रेरणे’ धातुसे इसकी निष्पत्ति होती है। ङ. ’ सिनोति इति सीता’– अर्थात् जो बाँधनेवाली, वशमें करनेवाली है वह सीता है। ’षिञ् बन्धने’ धातुसे इसकी निष्पत्ति होती है। तभी तो :-

सीनोत्यतिगुणैः कान्तं सीयते तद्गुणैस्तु या। माधुर्यादिगुणैः पूर्णां तां सीतां प्रणमाम्यहम्॥

अथर्ववेदीय सीतोपनिषद्में इसीलिए तो कहा गया:-

“श्रीरामसान्निध्यवशाज्जगदानन्दकारिणी। उत्पत्तिस्थितिसंहारकारिणी सर्वदेहिनाम् ॥७॥“

तात्पर्य यह कि श्रीरामके सान्निध्यवशात् चराचर जगत्को उत्पन्न, पालन,तथा संहार करती हैं। एवम्

“सा सर्ववेदमयी सर्वदेवमयी सर्वलोकमयी सर्वकीर्तिमयी सर्वधर्ममयी सर्वाधारकार्य-कारणमयी महालक्ष्मीर्देवेशस्य भिन्नाभिन्नरूपा चेतनाचेतनात्मिका ब्रह्मस्थावरात्मा तद्गुणकर्म-विभागभेदाच्च्हरीरूपा देवर्षिमनुष्यगन्धर्वरूपा असुरराक्षसभूतप्रेतपिशाचभूतादिभूतशरीरूपा भूतेन्द्रियमनःप्राणरूपेति च विज्ञायते ॥१०॥”

भाव यह कि वह (सीताजी) सर्ववेदमयी, सर्वदेवमयी, सर्वलोकमयी, सर्वकीर्तिमयी, सर्वधर्ममयी, सर्वाधार, कार्य-कारणमयी, महालक्ष्मी, देवोंके देव, भिन्नाभिन्नस्वरूपा, चेतनाचेतनात्मिका, ब्रह्मसे स्थावर पर्यन्त सब कुछ, देवर्षि, मनुष्य, गन्धर्वरूपा; असुर, राक्षस, भूत-प्रेत, पिशाच, सर्वजीवधारीशरीरूपा, तथा जीवोंके इन्द्रिय, मन प्राणादि सब कुछ हैं। अर्थात् सर्वविरुद्धधर्माश्रय श्रीसीताजी हैं। और यही तो परब्रह्मका स्वरूप है। वस्तुतः श्रीरामजी तथा श्रीसीताजी परस्पर अभिन्न हैं। श्रीरामस्तवराजस्तोत्रके सप्तम श्लोकका जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्यका भाष्य स्पष्टतः उद्घोषित कर रहा है-

“श्रीरामपदेन सीताराम इत्येव समं अवगन्तव्यम्। श्रीशब्दः सीतायाः वाचकः।

अत, ’श्रीराम’ अर्थात् ’सीताराम।“ हमें आस्तिक भक्तोंसे निवेदित करते अपार हर्ष हो रहा है कि (इसी अवधारणाके अनुसार) जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्यने ऋग्वेदान्तर्गत श्रीसूक्तकी अद्भुत व्याख्या पूर्णतः सीता-परक ही की है जिसे उनका ग्रन्थ ’तुम पावक महँ करहु निवासा’ के पृष्ठ १८० से १९४ तक देखी जा सकती है। तभी तो हमारे रामजी सर्वत्र ’सीतासमारोपितवामभागम्’ ही हैं। जहाँ भी रामजी हैं वहाँ श्रीजी भी हैं। अतः श्रीरामजीका ध्यान अर्थात् सीतारामजीका ध्यान। प्रथम सीताजी तत्पश्चात् रामजी। तभी तो ध्यानके सम्बन्धमें नारदीय पुराणमें कहा है-

आदौ सीतापदं पुण्यं परमानन्ददायकम्। पश्चाच्छ्रीरामनामस्य अभ्यासं च प्रशस्यते॥

तभी किसीने ठीक ही कहा है:-

जनकनंदिनी पदकमल जब लगि हृदय न वास। रामभ्रमर आवत नहीं तब तक ताके पास॥

लेखक : डॉ. रामाधार शर्मा, पटना सम्पादक : अपूर्व अग्रवाल