स पिता स च मे माता स बन्धुः स च देवता । संसारमोहनाशाय तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥गुरु गीता ६६॥ न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः । न गुरोरधिकं ज्ञानं तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥गुरु गीता ७७॥
’गुरु’ शब्द बहुत ही गुरु और गम्भीर है, जिसकी व्याख्या करनेका सामर्थ्य हममें नहीं है। इसके गाम्भीर्यका अनुमान इसीसे सम्भवतः लग सकता है कि गुरुगीता एक स्वतंत्र ग्रंथ है जो वास्तव में स्कन्द पुराण (उत्तरखण्ड उमामहेश्वर संवाद अध्याय १-३) का एक भाग है। इसमें कुल ३५२ श्लोक हैं। सार रूपमें यदि कहा जाय तो गुरुगीता में भगवान शिव और पार्वती का संवाद है जिसमें पार्वती भगवान शिव से गुरु और उसकी महत्ता की व्याख्या करने का अनुरोध करती हैं। यथा-भगवन् सर्वधर्मज्ञ व्रतानां व्रतनायकम्।ब्रूहि मे कृपया शम्भो गुरुमाहात्म्यमुत्तमम् ॥गु. गी. १४॥
इसमें, भगवान् शंकर, गुरु क्या हैं, उनका महत्व, गुरु की पूजा करने की विधि, गुरु गीता को पढने के लाभ आदि का वर्णन करते हैं। गुरु तत्त्व क्या है इसके उत्तरमें कहा गया –जपस्तपो व्रतं तीर्थं यज्ञो दानं तथैव च । गुरुतत्त्वमविज्ञाय सर्वं व्यर्थं भवेत्प्रिये ॥ गु. गी. २४॥
अर्थात् हे पार्वती! गुरु तत्त्वको न जानकर जप, तप, व्रत, तीर्थ, यज्ञ तथा दान सब व्यर्थ हो जाता है। यहाँ तक किशिवपूजारतो वापि विष्णुपूजारतोऽथवा । गुरुतत्त्वविहीनश्चेत्तत्सर्वं व्यर्थमेव हि ॥ गु. गी. १९२॥
तात्पर्य यह कि आप गुरु-तत्त्व विहीन होकर शिवजीकी पूजामें रत हों अथवा विष्णुजीकी पूजामें वह सब व्यर्थ है। प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों? तो कहते हैं कि गुरुजीकी सेवा ही ’गया’ तीर्थ है उनका देह अक्षय वट है उनके पाद ही विष्णुपाद हैं –गुरुसेवा गया प्रोक्ता देहः स्यादक्षयो वटः। तत्पादं विष्णुपादं स्यात् तत्र दत्तमनन्तकम् ॥ गु. गी. ३८॥
गुरुका स्मरण और ध्यानकी निष्ठा कैसी होनी चाहिए-गुरुमूर्ति स्मरेन्नित्यं गुरुर्नाम सदा जपेत् । गुरोराज्ञां प्रकुर्वीत गुरोरन्यं न भावयेत् ॥ गुरुवक्त्रे स्थितं ब्रह्म प्राप्यते तत्प्रसादतः । गुरोर्ध्यानं सदा कुर्यात् कुलस्त्री स्वपतिं यथा ॥ गु. गी. ३९-४०॥
अतः गुरुदेव भगवान्की सम्यक पूजा करनी चाहिए क्योंकि-गुरुरेको जगत्सर्वं ब्रह्मविष्णुशिवात्मकम् । गुरोः परतरं नास्ति तस्मात्सम्पूजयेद्गुरुम् ॥ सर्वश्रुतिशिरोरत्नविराजितपदाम्बुजम् । वेदान्तार्थप्रवक्तारं तस्मात् सम्पूजयेद्गुरुम् ॥ गु. गी.५३- ५४॥
यह तो सिद्धान्त रूपसे गुरुगीतामें समाहित है। परन्तु व्यवहार रूपसे जब तक उपरोक्त गुणोंका साक्षात्कार नहीं हो जाता तबतक परतीति तथा प्रीति नहीं हो पाती। गोस्वामीपादने कहा-जाने बिनु न होइ परतीति। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती॥ (रा.च. म. ७।८९। ७)।
इस सिद्धान्त (सर्वश्रुतिशिरोरत्न) की सम्पुष्टिके लिए एक बहुत ही छोटा-सा संस्मरण गुरुदेवके पादपद्ममें समर्पण करनेकी आज्ञा चाहूँगा। पुण्यारण्य ही अब पुनौरा कहा जाता है। और वह पुनौरा है श्रीसीतारामजीके गुण-ग्राम अर्थात् कथा। गोस्वामीपाद कहते हैं:-सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कवीश्वरकपीश्वरौ॥ (रा. च. मा.-१।मंगला. ४)
श्रीसीतारामजीके गुणग्राम अर्थात् कथा रुपी पुण्यारण्य (पुनौरा)में विहार करनेवाले विशुद्ध विज्ञानी श्री हनुमान् जी महाराज और श्री वाल्मीकिजी की वन्दना करता हूँ। इस पुनौरामें श्रीसीतारामजीकी कथा, विगत वर्षोंकी भाँति इस वर्ष भी पूरे हर्षोल्लासके साथ दिनाङ्क १९-४-२०१५ से २७-४-२०१५ तक हुयी। प्रत्येक वर्ष ऐसा लगता है कि इस वर्षकी कथा तो अद्भुत हुयी अर्थात् किन्हीं भी दो कथाओंकी तुलना नहीं की जा सकती। और ऐसा लगे भी क्यों नहीं? वस्तुतः जब कथा प्रसादकी सरलता और तरलता, उसका सर्वकालिक प्रवाह (जैसेकी मन्दाकिनी का प्रवाह सर्वकालिक होता है), उसका अनसूयापन (मन्दाकिनी श्री अनसूयाजी ने अपने तपोबलसे लायीं- अत्रिप्रिया निज तपबल आनीं -रा.च.मा. २।१३२।५-६) इत्यादि अनन्त गुणगणराशिकी तुलना भला हो भी तो कैसे? और वह भी तब जब यह कथा चित्रकूट पीठाधीश्वरके श्रीमुखसे निकली हो। आज मानसजी पर अनेकों टीकायें उपलब्ध हैं (मानस पीयूष, गूढार्थ चन्द्रिका इत्यादि)। परन्तु वह तोष कहाँ जो गुरुवरकी कथासे प्राप्त होती है। इस कथाकी विशेषता ही यह रही कि जब नव्य-नव्य भावोंके साथ गुरुदेव ने मानसजी के किसी भी पंक्तिकी शब्दशः व्याख्या करते थे तो ऐसा प्रतीत होता था जैसे समय थम सा गया हो। समयका ज्ञान तो तब होता था जब गुरुजीका संकेत होता था कि अब कथा विश्रामकी ओर है, आरती की जाय। पहले तो मैं समझता था कि यदा-कदा अतिशयोक्तिमें लोग कह देते हैं – हरि अनन्त हरिकथा अनन्ता (रा.च्. मा. १।१४०।५)। अर्थात्, हरि अनन्त हैं और प्रत्येक हरिकी कथाएँ भी अनन्त हैं। लगता था प्रत्येक हरिकी कथाएँ अनन्त कैसे होंगी? और उत्तर मिला। गुरुजी का प्रवचन हो रहा था-“ चातक कोकिल कीर चकोरा।- रा.च्. मा. १।२२७।६”। और कथा-रसिक लोग जानते हैं कि उस दिनका पूरा प्रवचन मात्र इसी चौपाइपर बीत गया। अगले दिन प्रवचन हो रहा था-“चहुँ दिशि चितइ पूँछि मालीगन –रा.च्. मा. १।२२८।१” । और आपको बता दूँ कि उस दिनका पूरा प्रवचन मात्र इन्हीं शब्दोंपर बीत गया- “चहुँ दिशि चितइ”। दूसरे दिन, जानकी कुंड परिक्रमाके समय, मैंने गुरुवरसे विनोदमें प्रार्थना किया कि कल तो ’पूछते ही रह गये गुरुजी’। उत्तर कितना सटीक था- हमारे राघवजी मर्यादा पुरुषोत्तम हैं! और् दूसरे दिनकी कथा पुनः “चहुँ दिशि चितइ” से प्रारम्भ होकर “पूँछि मालीगन “ पर विश्राम लिया। अब तो ’हरिकथा अनन्ता’ समझमें आने लगी। तभी तो गोस्वामीपाद ने कहा :-गुरु बिबेकसागर जग जाना। जिनहिं बिश्व करबदर समाना॥ (रा. च. मा. २।१८२।१)
गुरुजी प्रायशः कहते हैं कि कथाकी सफलता उपस्थित भीड़से नहीं होती वरन् कथा-रसिकोंके लिए कितना हृदयग्राही हुआ। अब आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं कि गुरुवरके प्रवचनोंका लाभ सतत रूपसे जिला न्यायालयके माननीय न्यायाधीशोंने भी सपरिवार उठाया। और यहाँ तक कि उनलोगोंने प्रातःकाल, जानकी कुंड परिक्रमाके समय, गुरुवरसे मिलनेकी अपनी इच्छा व्यक्त की। और गुरुदेवकी सहृदयताने इसे सहर्ष स्वीकार भी किया। कितनी सरलता है गुरुदेव की। हमारे गुरुदेव सन्देह-समुद्रको नष्ट करने हेतु बड़वानल हैं तथा जन्म-मृत्युके भयको मिटानेमें परम समर्थ हैं जो कि गुरुगीताके अनुसार गुरुका लक्षण है:-सर्वसन्देहसन्दोहनिर्मूलनविचक्षणः । जन्ममृत्युभयघ्नो यः स गुरुः परमो मतः ॥गु. गी. २७९॥
बहुत जन्मोंके पुण्यके फलसे ऐसे महान् गुरुकी प्राप्ति होती है जिसे पाकर शिष्य पुनः संसार-बन्धनमें नहीं पड़ता:-बहुजन्मकृतात् पुण्याल्लभ्यतेऽसौ महागुरुः । लब्ध्वाऽमुं न पुनर्याति शिष्यः संसारबन्धनम् ॥ गु. गी. २८०॥
अतएव-श्रीमत्परं ब्रह्म गुरुं स्मरामि श्रीमत्परं ब्रह्म गुरुं भजामि । श्रीमत्परं ब्रह्म गुरुं वदामि श्रीमत्परं ब्रह्म गुरुं नमामि ॥ -गु. गी. ११०॥
लेखक : डॉ. रामाधार शर्मा, पटना सम्पादक : अपूर्व अग्रवाल