अध्यक्षीय उद्बोधन
चतुर्थ दीक्षान्त समारोह
जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलाङ्ग विश्वविद्यालय
२० अप्रैल २०१३
प्रवक्ता – जगद्गुरु रामभद्राचार्य
आजीवन कुलाधिपति
जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलाङ्ग विश्वविद्यालय
चित्रकूट, उत्तर प्रदेश, भारत
सम्पादक – डॉ. रामधार शर्मा, नित्यानन्द मिश्र
रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे। रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः॥ श्रीसीतानाथसमारम्भां श्रीरामानन्दार्यमध्यमाम्। अस्मदाचार्यपर्यन्तां वन्दे श्रीगुरुपरम्पराम्॥ भिन्नभिन्नपदाकारैः शमयन्मामकीं शुचम्। जयत्येष निरालम्बो विकलाङ्गमहेश्वरः॥
परिपूर्णतम परात्पर परब्रह्म परमेश्वर भगवान् श्रीसीतारामजी की निर्व्याज करुणा से सम्पन्न हो रहे जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलाङ्ग विश्वविद्यालय के इस दीक्षान्त समारोह में सहभागिता को समलङ्कृत कर रहे मुख्यातिथि डॉ अखिलेश गुप्त, एवं जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलाङ्ग विश्वविद्यालय के यशस्वी कुलपति प्रो. बी. पाण्डेय, तथा विश्वविद्यालय परिवार! दीक्षान्त समारोह में योग्यताओं को प्रमाणपत्र के रूप में अधिगत कर रहे छात्राओं एवं छात्रों! आज आप सबके प्रति मङ्गलाशासन एवं वर्धापन करते हुये मेरा शान्त स्वान्त नितान्त आनन्द का अनुभव कर रहा है। यह वह अनुभव है जहाँ उद्भव है, परन्तु पराभव नहीं। जहाँ सात्त्विक सारस्वत वैभव है, परन्तु परिभव नहीं। जहाँ प्रसाद है, परन्तु विषाद नहीं। जहाँ विकलाङ्ग छात्र-छात्राओं की सफलता के समवलोकन से आह्लाद है, किन्तु अवसाद नहीं। आज आप दीक्षान्त समारोह में उपस्थित हो रहे हैं क्या आपने कभी यह जानने का प्रयास किया कि दीक्षान्त का वास्तविक अर्थ क्या है? इसे किस सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए। इसकी आज की भीषण भौतिकवाद विभीषिका के बीच क्या प्रासंगिकता है? आज की स्वार्थपरक परिविष्टि में इसकी क्या आनुषंगिकता है? मैं इस सन्दर्भ में इतना ही विवक्षित अभीष्ट मानता हूँ कि मानवता की सफलता की समर्चा ही दीक्षान्त की प्रासंगिकता है एवं असद् विचारों की उत्सर्जना, सद्विचारों की सर्जना तथा अनवद्यता की विसर्जना ही इसकी आनुषंगिकता है। दीक्षान्त, क्या दीक्षान्त? महर्षि पाणिनि ने दीक्ष् धातु के जो पाँच अर्थ निर्दिष्ट किये हैं, उनमें से प्रथम और तृतीय को छोड़कर शेष तीन आपकी जिजीविषा के पाथेय बनेंगे। मेरे उपबृंहण का इतना ही तात्पर्य समवगम्य होगा कि दीक्ष् धातु के जो पाँच अर्थ महर्षि पाणिनि ने कहे –दीक्ष मौण्ड्येज्योपनयननियमव्रतादेशेषु।
– धा.पा. ६०९
अर्थात् दीक्ष् धातु का अर्थ है मौण्ड्य (मुण्डन), इज्या (यज्ञ), उपनयन (यज्ञोपवीत), नियम (जीवन के निर्धार्यमाण वर्तुल वर्त्म के सान्दर्भिक शब्दतात्मक उपबन्ध) तथा व्रतादेश। इनमें से मौण्ड्य अर्थात् मुण्डन और उपनयन इन दोनों को छोड़कर तीन अर्थ आपके जीवन की अन्वर्थता को प्रमाणित करेंगे। दीक्ष् का अर्थ इज्या, इज्या अर्थात् यज्ञ। आप इस विश्वविद्यालय से शिक्षित और प्रशिक्षित होकर अग्रिम जीवन की स्वर्णिम उषा के समाश्लेषणार्थ विश्लेषरहित होकर सौप्रास्थानिक के साथ प्रस्थान कर रहे हैं। जीवन ही यज्ञ है, क्योंकि यज् धातु के भारतीय वाङ्मय ने तीन अर्थ स्वीकारे हैं। जिन्हें दाक्षीहृदयहर्षवर्धन महर्षि पाणिनि ने धातुपाठ में उपनिबद्ध किया है –यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु।
– धा.पा. १००२
देवपूजा का अर्थ मन्दिरों में प्रतिष्ठापित पाषाणमूर्तिर्यों को अक्षत, पुष्प, धूप, दीप समर्पण करने से गतार्थता को प्राप्त करें? प्रत्युत देव का अर्थ है दैवीय संपत् से सम्पन्न व्यक्ति – पुरुष हो या स्त्री – जहाँ भी दैवीय सम्पत्ति दृष्टिगोचर हो रही हो, उनका सम्मान ही देवपूजा है। सङ्गतिकरण का तात्पर्य है अन्योन्य के साथ मेल-मिलाप अर्थात् एक दूसरे के लिये सहानुभूति नहीं समानुभूति। अन्योन्य के सुख-दुःख में सहभागिता की धारणा, अन्योन्य के सङ्कट के निराकरण की एक जागरूक शुभेच्छा, और दान का तात्पर्य है आवश्यकता एवं विपन्नता से प्रेरित लोगों के प्रति, कुछ उत्सर्ग करना। यहाँ हमारे समावर्तिष्यमाण छात्राओं और छात्रों के लिए तीन विषय अत्यन्त ध्यातव्य हैं। वे हैं – उत्सर्ग, सर्ग और विसर्ग। जीवन में उत्सर्जन होना चाहिए परन्तु दूषित वाष्प का नहीं प्रत्युत अपने धर्मार्जित धन का। विसर्जन होना चाहिए सामान्य आवाहित देवताओं का नहीं परन्तु अपने दोषों का। सर्जन होना चाहिए सद्गुणों का और सद्गुणों के समुच्चयोचित मङ्गलमय सत्कार्यसंविधानों का। दान, जीवन में दित्सा होनी ही चाहिए। देने की इच्छा। हम क्या दें? समाज को क्या दें? परिवार को क्या दें? राष्ट्र को क्या दें? और क्यो दें परमेश्वर को? इस पर हमारे मानस में निर्विकल्प सङ्कल्प का उदय होना ही तो चाहिए। हम समाज को सत्कार्यों का पुरस्कार दें। हम राष्ट्र को त्याग का परिष्कार दें और हम परमात्मा को स्वत्व के समर्पण का आविष्कार दें। निश्चित रूप से जीवन मधुमय और मङ्गलमय होगा। मैं आप सब छात्राओं और छात्रों के प्रति दिवानिश यही तो परमेश्वर से प्रार्थना करता रहता हूँ। आपका जीवन मधुमय हो। आपका प्रभात मधुमय हो। आपका मध्याह्न मधुमय हो। आपका सायन्तन मधुमय हो। सब कुछ मधुमय हो। वात्सल्य भाजनों! आज मैं आप सबको वेदान्त का उपदेश देने नहीं उपस्थित हुआ हूँ। क्योंकि मुझे आपको वेदान्तप्रिय न बनाकर सिद्धान्तप्रिय बनाने का मन है। आप पहले शुद्धान्तप्रिय बनें। पुनः सिद्धान्तप्रिय बनें। फिर तो वेदान्तप्रियता आपको स्वयमेव हस्तगत हो जायेगी। उसके लिये कोई अतिरिक्त प्रयास की चिकीर्षा आपके स्वान्त को बाधित नहीं करेगी। नियम : जीवन में कुछ नियमों के निर्धारण करने पड़ेगे। इस सन्दर्भ में मैं राष्ट्रकवि मैथिलीशरणगुप्त द्वारा विरचित द्वापर खण्डकाव्य से एक पङ्क्ति उद्धृत करना चाहूँगा –खेलकूद में ही न अरे हम सब अवसर खो देंगे। भावी जीवन के भविष्य भी कुछ निश्चित कर लेंगे।
– द्वा. ६/३
क्या निश्चित करेंगे? आपका क्या निश्चेतव्य होगा? यही तो इस अवसर पर आपको समझना है। आप शिक्षित और प्रशिक्षित होकर यहाँ से समावर्तित हो रहे हैं। विद्या से सब अनवद्या पराविद्या की ओर आपका प्रसरण हो रहा है। क्या है विद्या? भारतीय वाङ्मय की दृष्टि से –सा विद्या या विमुक्तये।
– वि.पु. १/१९/४१
विद्या विद्यार्थी को सभी धर्मों से मुक्त करना चाहती है? नहीं। कदापि नहीं। फिर विमुक्ति का अर्थ है विश्वमुक्ति। उसे विद्या कहते हैं जो विश्व को विसङ्कटों से मुक्ति दिला सकी है। भारतीय विद्या विश्व के मुक्ति की बात करती है। और भी शङ्कराचार्य जैसे निर्विशेष बात की नहीं। भारतीय विद्या का यह तात्पर्य जगद्गुरु रामानन्दाचार्य के सविशेष बात से हैं और यही सिद्धान्त गीता का भी है। श्रीमद्भगवद्गीता के अष्टम अध्याय के सप्तम श्लोक में योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण तो निर्दिष्ट करते हुये कहते हैं –मामनुस्मर युध्य च।
– भ.गी. ८/७
अर्थात् अनुकूलता से परमात्मा का स्मरण करो और युध्य अर्थात् संसार की समस्याओं से संघर्ष करते रहो। यदि परमात्मा का स्मरण करोगे तो तुम्हारी शक्तियों का कभी क्षरण नहीं होगा और तुम्हारे जीवन में असद् गुणों का प्रस्फुरण भी नहीं होगा और तुम्हारे उत्साह का संवरण भी नहीं होगा। केवल निरावरण होगा वह अलौकिक सदाचरण जिससे समस्त वैश्विक जगत् तुम्हारे चरण पर नमन करने के लिए उत्सुक होता रहेगा। मैं आपके मन में जिजीविषा जगाना चाहता हूँ और आपके मन से उस मुमूर्षा को भगाना चाहता हूँ। आपकी बुद्धि में चिकीर्षा का स्वाद जगाना चाहता हूँ और आपके हृदय से अचिकीर्षा को सर्वथा दूर रखना चाहता हूँ। जीवन में जब पूर्वाग्रह, प्रतिशोध, प्रमाद एवं प्रतिक्रिया जैसे दुर्गुण उपस्थित होते हैं तब वे सात्त्विक सङ्कल्पों के लिए कण्टकायित हो जाते हैं। इसलिए हमें इनसे सर्वथा अपने को दूर करना होगा। एक नियम लेना होगा। हम जो कुछ कर रहे हैं, या जो कुछ हमारे लिए करिष्यमाण है, उसमें उनके लिए हमने क्या किया है, जो हमारे जीवन के स्वार्थिक अनुबन्धों से बहुत दूर हैं। उनके लिए हमें क्या समाचरणीय है, जिनका हमारे निरबन्धों से किसी भी प्रकार का कोई भी संश्लेष नहीं है। यहाँ हम आपको शुक्लयजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के द्वितीय मन्त्र की ओर इङ्गित करना चाहेंगे –कु॒र्वन्ने॒वेह॒ कर्मा॑णि जिजीवि॒षेच्छ॒त समा॑।
– शु.य.वा.मा.सं. ४०/२
कुर्वन् का अर्थ क्या है? कुर्वाण एवं कर्माणि भी कहा जा सकता था परन्तु कुर्वाणः का अर्थ होता है अपने लिए कर्म करना और कुर्वन् का अर्थ है अन्य के लिए। अर्थात् हम अन्य के लिए कर्म करते हुये सौ वर्ष पर्यन्त स्वस्थ रहकर जीने की इच्छा करते हुये परमात्मा से प्रार्थना करें। सात्त्विक सङ्कल्पों से समुदित एवं उदारोचित कर्मों की अवसन्धि में विकलाङ्गता बाधक नहीं बनती। क्योंकि हम आप सबके विकलाङ्गता जैसे अभिशाप को दूरोच्छ्रित करके विशिष्ट कलाङ्ग सम्पन्न बनाना चाहते रहे हैं। हम चाहते हैं आपमें उन कलाओं का यौगपद्येन समवतरण हो जाये, जिन कलाओं के चामत्कारिक प्रभाव से अनुभावित होकर परमेश्वर भी आपकी विकलाङ्गता को नमस्या करने के लिए समातुर हो उठे। बेटियों और बेटों! आज आपसे वीज्यमान हो रहे आपके निर्दोष कुलाधिपति की आपके प्रति एक ही तो अभीप्सा है वह यह कि –स्वयं को कर सजग इतना कि प्रतिसौभाग्य के पहले। प्रभु साधक से ये पूँछें बता तेरी समीहा क्या॥
आज में आपको समीहित होना है। आज में आपको अपने जीवन के महायज्ञ में उस अध्वर्यु की भूमिका निभानी है जिसकी प्रत्येक आहुति पर वैश्वानर की जिघृक्षा सोत्कण्ठ समाहत हो उठे। आज आपको उस यज्ञ का होता बनना है, जहाँ हव्यवाट् आपकी सफलता के वाट में पलक पाँवड़ी बिछाकर प्रतीक्षा और समीक्षा कर रहे होंगे। आज से आपको उन सात्त्विक सङ्कल्पों की सञ्जिघृक्षा के लिए यत्न करना होगा जिनके लिए श्रुतियाँ परमात्मा के दिव्य श्वासों के साथ यह वाक्य झङ्कृत कर रहीं हैं कि –तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस॑ङ्कल्पमस्तु।
– शु.य.वा.मा.सं. ३४/१-६
मैं यह सुनने को कभी भी उद्यत नहीं हूँ कि विकलाङ्ग किसी भी कर्म में सफल नहीं होता। मैं तो इसी तथ्य का शुश्रूषु रहूँगा कि सम्पूर्ण असम्भवों को यदि सम्भव करने की किसी में क्षमता है तो उस क्रियाशील जीवन का नाम है विकलाङ्ग। आपके उत्साह में मैं निरन्तर साधक रहूँगा। मेरा विनियोग और सहयोग आपके कर्मकौशलात्मक योग में अनुदिन सहायता करता रहेगा। मेरा प्रयोग आपके जीवन की सम्प्रयोगात्मक विद्या में मधुराका की भूमिका निभायेगा। परन्तु मधुराका के लिए ऋतुराज का अवतरण तो आपके ही अध्यवसाय का प्रतिफल होगा। इस तथ्य से आप भली भाँति परिचित होंगे कि आचार्य जब छात्राओं और छात्रों के लिए नियम निर्देश का इच्छुक होता है तो उसके आचरण में प्रतिभासित कठोरता दृष्टिगोचर होती है, पर वह पारमार्थिक नहीं होती। ठीक यही भूमिका मेरी है। हो सकता है आपके कदाचरणों के निवारणार्थ मेरी व्यवस्था में किञ्चित् कठोरता का आप्लवन हो। इसकी मैं विशेष चिन्ता नहीं करता क्योंकि मैं जानता हँ कि आचार्य का अनुशासन विद्यार्थी के जीवन का महौषधि बन जाता है। आचार्य के निर्देश, विद्यार्थी के कार्यकलापों के निशावशेष को प्रभात में परिवर्तित करते हैं। जैसा कि हुलसीहर्षवर्धन गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं –जिमि शिशु तन ब्रन होइ गोसाईं। मातु चिराव कठिन की नाईं॥ जदपि प्रथम दुःख पावइ रोवइ बाल अधीर। व्याधि नाशहित जननी गणति न सो शिशु पीर॥
– रा.च.मा. ७/७४/८, ७/७४(क)
आज कुछ नियम दीयमान हैं उन्हें ग्रहण कीजिए। आप अपने जीवन का भी समलङ्करण कर लीजिए। जीवन में जितना हो सके सत्य का आचरण कीजिए एवं भारतीय पद्धति के अनुसार वासनात्मक प्रपञ्च से दूर रहकर ब्रह्मचर्य का आचरण कीजिए। यहाँ ब्रह्मचर्य शब्द कदाचित् आपके लिए कुछ अटपटा प्रतीत हो रहा होगा। ऐसा कुछ नहीं उसका एक व्यावहारिक स्वरूप है। वह यह कि पुरुष एक जीवनसङ्गिनी के साथ जीवन निभाये। यह उसका ब्रह्मचर्य है। और नारी एक जीवनसङ्गी के साथ जीवनयात्रा को पूर्ण कर लें, यह उसका ब्रह्मचर्य है। आज छः नियमों का स्वीकरण आपके जीवन का निश्चित रूप से अलङ्करण होगा। वे हैं सत्य, ब्रह्मचर्य, व्यायाम, विद्या, ईश्वरप्रेम, और समाज तथा राष्ट्र के लिए कुछ त्याग। भारतीय संस्कृति का यह एक मन्त्र है –त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः।
– कै.उ. १/३
त्याग से अमृत की प्राप्ति होती है। योगवृत्ति का सोपान होता है।तेन॑ त्य॒क्तेन॑ भुञ्जीथा॒
– शु.य.वा.मा.सं. ४०/१
परमात्मा हमारे लिये जो उत्सृष्ट करें उसी से हमें अपनी जीवन यात्रा चलानी चाहिए। जहाँ भी व्यक्ति आवश्यकता से अतिरिक्त धन सञ्जिघृक्षा में तत्पर होता है वहाँ उसके जीवन में अशान्ति आ जाती है। आज यही तो अशान्ति का मूल है। व्यक्ति आवश्यकता से अधिक धन चाह रहा है। उसकी पूर्ति के अभाव में वह कदाचारी, अन्यायी, अधर्मी, आतङ्कवादी और असहिष्णु बनता जा रहा है। हमारी जितनी आवश्यकता हो उतना तो ईश्वर हमें उपलब्ध कराते रहते हैं। वास्तविक ईश्वरप्रेमी कभी विपन्न नहीं हेाता क्योंकि भगवत्प्रपन्नता विपन्नता और विप्रतिपन्नता को सदैव दूरोत्सृष्ट करती रहती है। पुत्रियों और पुत्रों! कोई भी वर्ग या कोई भी व्यक्ति अध्यात्म के बिना शान्ति को प्राप्त ही नहीं कर सकता। सबको अध्यात्म उपादेय हैं चाहे वह किसी भी जाति या किसी भी वर्ग या किसी भी सम्प्रदाय का हो। अध्यात्म का अर्थ क्या है? क्या मैं सभी छात्रों को बाबा और सभी छात्राओं को साध्वी बनाना चाहता हूँ? कभी नहीं। आप अष्टाङ्गयोगी बने या न बनें इस पक्ष में आपके प्रति मेरा कोई आपीडन नहीं होगा। परन्तु आपको कर्मयोगी बनना आवश्यक है। अष्टाङ्गयोग भौतिक शरीर को बलवान् बनाता है। और कर्मयोग सूक्ष्मशरीर को बलवत्तर बनाता है। इस तथ्य की पुष्टि हेतु मैं गीता जी के षष्ठ अध्याय का छियालीसवाँ श्लोक उद्घृत कर रहा हूँ –तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः। कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन॥
– भ.गी. ६/४६
योगी बनो अर्थात् निष्काम भाव से कर्म करते रहो। अकर्मण्य मत बनो कुछ-न-कुछ करो। कुरु कर्मैव (भ.गी. ४/१५)। कर्म करो। भगवान् को पुष्पों से नहीं प्रत्युत निष्ठा द्वारा सम्पन्न कर्मों से पूजो। कर्म करते-करते यदि भगवान् के मन्दिर में जाने का समय न मिले तो जान लो उसी दिन तुम्हारी पूजा सम्पन्न हो गयी है। पूजा का प्राण है उत्सर्जन। पूजा की आत्मा ही सर्जन, और पूजा का विशेषार्घ्य है दुर्गुणों का विसर्जन। हमें इन तथ्यों के साथ अपने जीवन को मधुमय बनाना है। जीवन भगवत्प्रसाद है। किसी भी परिस्थिति में रहकर उसे भगवत्प्रसाद मानकर मुस्कुराना ही मानवता की वास्तविक परिभाषा है। मुझे विकलाङ्गता की विडम्बनाओं का सञ्ज्ञान ही नहीं परिज्ञान भी है और कदाचित् इन्हीं सञ्ज्ञान और परिज्ञानों की अबुभूषा ने मुझे जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलाङ्ग विश्वविद्यालय के निर्माण से प्रेरित कर दिया। बना विश्वविद्यालय और वह बारह वर्षों से चल भी रहा है। निश्चित रूप से यह और लोगों के लिए संस्थान होगा पर मेरे लिये विकलाङ्ग विश्वविद्यालय मानवता का महत्तम मन्दिर है। मैं इसमें विकल मानवता की पूजा कर रहा हूँ। आप लोग भी यही कीजिए। अन्य मन्दिरों के पुजारी बनिए या न बनिये पर मानवता महामन्दिर के पुजारी अवश्य बन जाइये। पूजा कीजिए मानवता की अपनी निष्ठा के परमपावन पराग परिणत पाथोज प्रकरों से। निश्चित रूप से मानवता की पूजा परमेश्वर की पूजा मानी जायेगी। मैं विकलाङ्गों को महेश्वर मानता हूँ। आप मेरे महेश्वर हैं। पर महेश्वर का भी तो रुद्राभिषेक करना होता है। आज का वक्तव्य ही मेरा आपके लिए रुद्राभिषेक है। हाँ अन्य रुद्राभिषेक जल, रस आदि सामग्रियों से होते हैं और मेरा रुद्राभिषेक भिन्न-भिन्न वैदिक सिद्धान्तों से सङ्ग्रथित वाक्यप्रसून परागों का है। मेरा अभिषेक स्वीकार कीजिए। और आप भी यथासम्भव यही रूद्राभिषेक कीजिए। विकलाङ्ग महेश्वर को प्रतिष्ठापित कीजिए। संस्थापित कीजिए। इन्हें कभी विस्थापित मत कीजिए। विकलाङ्गता मेरी दृष्टि में अभिशाप नहीं है यह तो कर्मक्षेत्र में सम्प्रेषित किया हुआ परमेश्वरीय अवदान है। किसी अङ्ग का अभाव परमेश्वर का दण्ड नहीं यह तो परमात्मा का प्रसाद परिपोषित वरदान है। जीवन में निराशा सबसे बड़ा निर्बल पक्ष है। आशावादी बनिये पर दुराशावादी नहीं। आप सदाशयता का अभ्यास कीजिए। दुराशयता का निराश कीजिए। फिर तो स्वयं ही महाशय बन जायेंगे और यही बनाने का मेरा सङ्कल्प भी है। क्या आप समझते हैं कि आज दीक्षा का अन्त हो रहा है? नहीं। शिक्षित विषयों को जीवन में समवतरित करने की कलाओं का अभ्यास ही तो दीक्षा है। दीक्षान्त का अर्थ क्या होता है? दीक्षा का अन्त? नहीं। अन्त शब्द का समाप्ति ही अर्थ नहीं होता। कोश के अन्त शब्द का स्वरूप भी अर्थ होता है। अर्थात् जहाँ दीक्षा के स्वरूप का निदर्शन कराया जाता है, उस महोत्सव को दीक्षान्त कहते हैं। आज आपको दीक्षा के स्वरूप के सम्बन्ध में जानना है। दीक्षा का स्वरूप क्या है? अग्रिम जीवन के कार्यक्रमों का सात्त्विक निश्चय। दीक्षा का स्वरूप क्या है? गुरुजन के समक्ष अग्रिम जीवन की योजनाओं का परिनिर्णय। दीक्षा का स्वरूप क्या है? जीवन महायज्ञ के संविधानों को कार्यान्वित करने की सत्यप्रतिज्ञा। आप अपने निर्दोष कुलाधिपति की मुद्रित दृष्टि की निर्झरित अश्रु बिन्दुओं से संवलित आशीर्वाद का प्रसाद लेकर जहाँ भी प्रस्थान करें, वहाँ अपने कर्तव्य पथ से न भटकें। यही आज की मेरी गुरुदक्षिणा है। आप आज एक व्रत लें कि जिन परिस्थितियों में आपका यह जीवन इतने अंशों में सम्पन्न हुआ और जिन मर्यादाओं में आपने इस विश्वविद्यालय के मनोज्ञ कुसुम की भूमिका निभाई है, उन मर्यादाओं को कभी भी अपने से दूर करने का प्रयास मत कीजियेगा। आप जब भी किसी भी सङ्कट के समक्ष होंगे मेरा सत्सङ्कल्प आपके उस सम्पूर्ण सङ्कट का निरसन करता रहेगा। यह मेरा निरत्यय प्रत्यय है। आपके लिए मेरा एक आदेश भी है। वह यह है कि अपने राष्ट्र को देवता मानिये। आज राष्ट्र पर गम्भीर सङ्कटों की कादम्बिनी धैर्य को कदर्थित कर रही है। इसके निविड निराश, निरशन के लिए प्रस्तुत हो जाइये और संस्तुत होइये उस औपनिषद वाक्य के लिए कि –उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति॥
– क.उ. १/३/१४
भगवान् श्रीराम आपका कल्याण करें। अनेक-अनेक आशीर्वाद।
जय विकलाङ्ग।
जय श्री सीताराम।
संकेताक्षर सूची
क.उ. – कठोपनिषद् कै.उ. – कैवल्योपनिषद् द्वा. – द्वापर खण्डकाव्य (मैथिलीशरण गुप्त) धा.पा. – पाणिनीय धातुपाठ भ.गी. – भगवद्गीता रा.च.मा. – रामचरितमानस वि.पु. – विष्णुपुराण शु.य.वा.मा.सं. – शुक्लयजुर्वेद वाजसनेयि माध्यन्दिन संहिता