श्रीरामकथा के नवम दिवस २८ सितम्बर २०१३ के कतिपय अंश

नव दिवसीय श्रीरामकथा की आधार चौपाई-

मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दशरथ अजिर बिहारी॥ – रा.च.मा. १/११२/४

१. कथा के प्रारम्भ से पूर्व गुरुजी ने अपने संस्कृत वक्तव्य में कहा कि ब्राह्मण वेद मंत्रों का संरक्षण करें। ब्राह्मण वृक्ष हैं, तो सन्ध्या उनका मूल है। यदि मूल रखना है, तो सन्ध्या न छोड़ें। राम जी भी सन्ध्या करते थे। आज नैतिक मूल्यों का ह्रास होता जा रहा है, धन के कारण से नैतिक मूल्यों की उपेक्षा न करें। भारत भगवान का ही पर्याय है। २. गुरुजी ने कहा- आज यह ब्रह्म यज्ञ पूर्ण हो रहा है, आज वे कथा को विश्राम देने जा रहे हैं, लेकिन कथा कभी पूर्ण नहीं होती, क्योंकि-

हरि अनंत हरि कथा अनंता। – रा.च.मा. १/१४०/५

मैं तो एक परिवार का सदस्य हूँ और परिवार में त्रुटियाँ नहीं देखी जातीं। मैं तो विरक्त हूँ, पूरा समर्थ परिवार छोड़ा है, लेकिन आपसे इन ९ दिनों में ही इतना लगाव हो गया है कि अब आपसे दूर जाते हुए उदासी हो रही है। महिमानन्द शास्त्री जी की पारिवारिक प्रीति देखी, इसीलिए आज उनसे विदा लेते समय मन भावुक हो गया है-

बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। – रा.च.मा. १/५/४

रहेगा न चंदा न तारे रहेंगे मगर हम निरन्तर तुम्हारे रहेंगे।

३. यद्यपि मेरे पास अन्य कथावक्ताओं के समान वैभव नहीं, किन्तु मैं सगर्व कह सकता हूँ कि सबसे अधिक ब्राह्मण सम्पत्ति मेरे पास है। आज ९९% कथावाचक तो ब्राह्मणेतर हैं, लेकिन हमने शास्त्र में श्रम किया है। ब्राह्मणों के समीप ३ सम्पत्तियाँ होती हैं- i. ब्राह्मणोचित तपस्या- हमने राम जी की कृपा से भयंकर प्रजापत्य व्रत, चान्द्रायण व्रत किए हैं और ९ बार षाण्मासिक व्रत भी किये हैं ii. श्रुतम् अर्थात् स्वाध्याय किया है iii. योनि अर्थात् ब्राह्मण परिवार में जन्म लिया है ब्राह्मण व्याकरण पढ़ें जिससे कि यज्ञ में अशुद्ध न बोलें। हमने नहीं पढ़ा, यह कहने से काम नहीं चलेगा। मन्त्रों में शक्ति होती है। भूमि, सूर्य, चन्द्र, जल वही तो हैं, जो पहले थे। जब सब कुछ वही, तो मन्त्र भी पहले के समान शक्तिपूर्ण हैं। लेकिन पहले मन्त्रों का शुद्ध उच्चारण होता था और अब नहीं होता, इसके कारण हम ही लोग हैं। सभी ब्राह्मण संकल्प करें कि और पूजा बाद में, पहले शुक्लयजुर्वेदीय सन्ध्या अवश्य करेंगे, यदि वे ब्राह्मणत्व को सुरक्षित रखना चाहते हैं तो। सन्ध्या में बहुत समय नहीं लगता, मात्र १५ मिनट या अधिकाधिक २० मिनट। सन्ध्या ३ नहीं कर सकते तो २ करें, २ नहीं तो कम से कम १ प्रातः कालीन तो करें ही करें। ब्राह्मण को सन्ध्या न करने से पाप लगता है और शुद्रवत् उसको सभी कर्मों से बहिष्कृत कर दिया जाता है। हाँ! उन्हें गायत्री मुद्रा की आवश्यकता नहीं है। ४. सबका गुरु ब्राह्मण है, ब्राह्मणों के गुरु संन्यासी और संन्यासियों के गुरु अविनाशी। ब्राह्मण यजमान के लिए शनैश्चर मन्त्र का पाठ करता है, किन्तु अपने ही लिए भजन नहीं करता। यदि ब्राह्मण वृक्ष है तो उसका मूल सन्ध्या है, यदि वह सन्ध्या करेगा, भजन करेगा, तो उसका ब्राह्मणत्व सुरक्षित रहेगा, फिर कोई उसका बाल भी बाँका नहीं कर सकता। ५. अपने खान पान में ध्यान रखें, पहले चरण धोए बिना और जहाँ कहीं भोजन नहीं किया जाता था। मैं मानस जी के साथ-साथ भागवत का भी वक्ता हूँ, बड़े-बड़े सिद्धान्त हैं, किन्तु मेरे लिए “रामात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने”। मेरे इष्ट देव बाल राम हैं-

इष्टदेव मम बालक रामा। शोभा बपुष कोटि शत कामा॥ – रा.च.मा. ७/७५/५

मैं इण्डोनेशिया में एक कांफ्रेंस में गया था और ६ दिन तक भोजन नहीं किया। तब एक ब्राह्मण ने कहा कि उनके यहाँ भोजन कर लें, तब मैं बाली तट से १०० कि.मी. दूर उसके यहाँ पहुँचा और वहाँ भोजन किया। ६.वस्तुतः भागवत के इष्ट भी राम हैं, वे ही कृष्ण बन कर आ गए हैं। कभी-कभी मन से कहता हूँ कि अब राम का पीछा छोड़, लेकिन राम जी इतने प्यारे हैं कि उन्हें छोड़ने का मन ही नहीं करता-

तुम्हें देखकर कौशल्या के दुलारे, मेरा मन कहीं अब तो लगता नहीं है। तुम्हें पाकर दशरथ के प्राणों के प्यारे, मेरा मन कहीं अब तो लगता नहीं है।

७. राम अपनी विजय यात्रा प्रारम्भ कर चुके हैं। मन्दोदरी, विभीषण रावण को समझाने का प्रयास करते हैं। वस्तुतः रावण राक्षस था, वह ब्राह्मण नहीं था। वह ब्रह्म ऋषि के संकल्प से राक्षसी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था, यदि ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न होता, तो ब्राह्मण होता। दूसरे, ब्राह्मण के मुख में यदि १ बूंद भी शराब चली जाए, तो वह ब्राह्मण नहीं रहता। रावण तो रात-दिन पीता था। ८. छाती पर लात लगने पर विभीषण रामजी शरण में जब गये, सुग्रीवजी ने आपत्ति की-

भेद हमार लेन शठ आवा। राखिय बाँधि मोहि अस भावा॥ – रा.च.मा. ५/४३/७

यह दुष्ट हमारा भेद लेने आया है, इसे बाँधकर रखना चाहिये। लेकिन रामजी इसे बाँधे कैसे? क्योंकि वे तो बन्धन से छुड़ाने आए हैं। राम जी ने विभीषण जी को लाने को कहा-

उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिधान। जय कृपालु कहि कपि चले अंगदादि हनुमान॥ – रा.च.मा. ५/४४

प्रचलित प्रति में ‘अंगद हनू समेत’ पाठ है, जो अशुद्ध है, क्योंकि तुलसीदासजी जैसे अनन्य हनुमदुपासक के श्रीमुख से अपने इष्टदेव हनुमानजी के लिए सामान्य परिकरों (नौकरों) की भाँति नाम के अर्द्धांश का अशिष्ट प्रयोग नहीं हो सकता। राम ने राक्षसों के नाश की पहले ही दो प्रतिज्ञाएँ की हुईं हैं- i. जटायु के सम्मुख रावण का वध-

सीता हरन तात जनि कहहु पिता सन जाइ। जौं मैं राम त कुल सहित कहिहि दशानन आइ॥॥ – रा.च.मा. ३/३३

ii. मुनियों के सम्मुख-

निशिचर हीन करहुँ मही भुज उठाइ पन कीन्ह। सकल मुनिन के आश्रमनि जाइ जाइ सुख दीन्ह॥ – रा.च.मा. ३/९

विभीषणजी कहते- प्रभु! मैं आपकी दोनों प्रतिज्ञाओं के आधार पर आपके हाथों से वध के लायक हूँ, क्योंकि मैं रावण का भाई हूँ और निशिचर वंश में मेरा जन्म हुआ है-

नाथ दशानन कर मैं भ्राता। निशिचर बंश जनम सुरत्राता॥ – रा.च.मा. ५/४५/७

रामजी कहते हैं – गलत! पहले थे, लेकिन अब नहीं हो। विभीषण- कैसे भगवन्? राम- क्योंकि अब तुम हनुमान् जी के भ्राता बन गए हो, उन्होंने स्वयं अपने मुख से कहा है-

तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता। देखी चहउँ जानकी माता॥ – रा.च.मा. ५/८/४

हनुमान मेरे बेटे हैं और वे अब तुम्हारे भाई हैं अतः तुम्हारा नवीन जन्म हुआ है। ९. श्रीराम सागर पार करने हेतु तीन लोगों से उपाय पूछते हैं-

सुनु कपीश लंकापति बीरा। केहि बिधि तरिय जलधि गंभीरा॥ – रा.च.मा. ५/५०/५

लोग कहते हैं कि लक्ष्मण जी, विभीषण जी के सागर से विनती करने के सुझाव से असहमत होकर बीच में क्यों बोल पड़े? क्या राम जी ने उनसे पूछा था? हाँ! राम जी ने तीन लोगों से पूछा- कपीश अर्थात सुग्रीव, लंकापति अर्थात विभीषण और बीरा अर्थात भाई लक्ष्मण। राम जी बोले- अभी नया-नया मन्त्रिमण्डल बना है, तीन दिन बाद तुम्हारी बात मानेंगे और सागर को सोखेंगे १०. अंगद रावण के दरबार में-

जौ मम चरन सकसि शठ टारी। फिरिहिं रामसीता मैं हारी॥ सुनहु सुभट सब कह दशशीशा। पद गहि धरनि पछारहु कीशा॥ – रा.च.मा. ६/३४/९

अंगद जी रावण से बोले- यदि तू मेरे जमाये चरण को हटा देगा तो सीताराम जी लौट जायेंगे और मैं हार जाऊँगा अर्थात् मुझे हारा हुआ समझकर सीताराम जी वापिस लौट जायेंगे और युद्ध नहीं करेंगे। अतः अंगद जी ने यह नहीं कहा कि रावण मेरा चरण हटा देगा तो राम जी लौट जायेंगे और मैं सीता माता को हार जाऊँगा, क्योंकि उन्हें इस प्रकार कहने का अधिकार नहीं। ११. लक्ष्मण मेघनाथ से युद्ध हेतु राम जी से आज्ञा माँगते हैं – प्रभु! यदि इसने इन्द्र को जीता है, तो मैंने इन्द्रियों को जीता है। लक्ष्मण मूर्च्छा प्रसंग में कुछ सूत्र छिपे हुए हैं। लक्ष्मण जी के मूर्छित होने पर, हनुमान जी उन्हें उठाकर राम के समीप लाते हैं। वस्तुतः जब जीव संसार की आसक्ति में भगवान् को भूल जाता है, तब उसे संत ही भगवान की शरण में लेकर आते हैं- हनुमान जी संत हैं-

अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता॥ – रा.च.मा. ५/७/४

१२. कालनेमि बदमाश कथावाचक है और हनुमान् जी उसकी बदमाशी उसकी राम कथा से समझ गए-

होत महा रन रावन रामहिं। जितिहैं राम न शंसय या महिं॥ इहाँ भए मैं देखउँ भाई। ग्यान दृष्टि बल मोहि अधिकाई॥ – रा.च.मा. ६/५७/५

कालनेमि कहता- “होत महा रन रावन रामहिं” अर्थात रावण-राम का संग्राम हो रहा है, पहले राम जी का नाम नहीं लिया, पहले आतंकवादी रावण का नाम लिया। अतः हनुमान् जी समझ गए यह नकली साधु है और पीने का बहाना कर जल माँगा। अब ऐसे बहुत से कथावाचक हैं, जो राम कथा में इस्लाम का गुण गान करते हैं, शेर-कव्वाली गाते हैं। क्या संस्कृत साहित्य में श्लोक नहीं हैं? क्या संस्कृत के श्लोक अब समाप्त हो गये हैं? ऐसे कथावाचक शेर-कव्वाली से, फिल्मी गानों से कथा मञ्च को दूषित कर रहे हैं। १३. रामजी विलाप कर रहे हैं क्योंकि आज उनके दोनों बेटे मूर्छित पड़े हैं, लक्ष्मण राम की गोद में और हनुमान् जी भरत की गोद में-

निज जननी के एक कुमारा। तात तासु तुम प्रान अधारा॥ सौंपेउ मोहि तुमहिं गहि पानी। सब बिधि सुखद परम हित जानी॥ – रा.च.मा. ६/६१/१४,१५

राम जी लक्ष्मण जी के पिता हैं, जैसा कि सुमित्रा जी ने वन गमन के समय लक्ष्मण जी से कहा था-

तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता राम सब भाँति सनेही॥ – रा.च.मा. २/७४/२

और हनुमान भी उनके पुत्र हैं, क्योंकि सीता जी उन्हें पुत्र मान चुकी हैं-

अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहु बहुत रघुनायक छोहू॥ करिहिं कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥ – रा.च.मा. ५/१७/३,४

१४. मेघनाथ ने हनुमान् जी को ब्रह्मास्त्र से बाँधा और रामजी को नागपाश से, सब नाग आ गए लेकिन उल्टा हो गया, राम जी को डसने के स्थान पर उनके शरीर का रस चूसने लगे, उन्हें मणिमाला पहनाने लगे। मेघनाथ बोला – सुसरों! यह क्या कर रहे हो? डसने को कहा था। नाग बोले – तुम अपनी माँ की बात नहीं मानोगे तो मरोगे, हम तो अपनी माता की बात मानेंगे। हमारी माता ने कहा तो जब राम जी चित्रकूट आए, हमने अपना विष भी उगल दिया था। अब माता ने कहा है कि राम जी को डसना नहीं, उनके शरीर से चिपककर अपने को धन्य बना लेना। १५. रावण ने रामजी की सेना में जिन-जिन को निर्बल माना, आज वे ही सब उसे युद्ध में लोहा दे रहे हैं- सुग्रीव, अंगद, हनुमान् १६.

सीता प्रथम अनल महँ राखी। प्रगट कीन्ह चह अंतर साखी॥ तेहि कारन करुनायतन कहे कछुक दुर्बाद। सुनत जातुधानी सब लागीं करै बिषाद॥ – रा.च.मा. ६/१०८/१४, ६/१०८

रामजी अब माया सीता को लौटाकर वास्तविक सीता को अग्नि से प्रकट करना चाहते हैं। माया सीता अग्नि में प्रवेश कर रहीं हैं और अब अग्नि में वास्तविक सीता आ गई हैं, उनकी साड़ी के पल्लू का एक तागा भी नहीं जल रहा है। राम जी अग्नि से सीता को लौटाने हेतु श्रीसूक्त का पाठ कर रहे हैं-

हिर॑ण्यवर्णां॒ हरि॑णीं सु॒वर्णरज॒तस्र॑जाम्‌। च॒न्द्रां हि॒रण्म॑यीं ल॒क्ष्मीं जात॑वेदो म॒ आव॑ह॥ १॥ तां म॒ आव॑ह॒ जात॑वेदो ल॒क्ष्मीमन॑पगा॒मिनीम्‌। यस्यां॒ हिर॑ण्यं वि॒न्देयं॒ गामश्वं॒ पुरु॑षान॒हम्‌॥ २॥ अ॒श्व॒पू॒र्वां र॑थम॒ध्यां ह॒स्तिनादप्र॒मोदि॑नीम्‌। श्रियं दे॒वीमुप॑ह्वये॒ श्रीर्मा दे॒वी जुषताम्‌॥ ३॥ कां॒सो॒स्मि॒ तां हिर॑ण्यप्रा॒कारा॑मा॒र्द्रां ज्वल॑न्तीं तृ॒प्तां त॒र्पय॑न्तीम्‌। प॒द्मे॒स्थि॒तां प॒द्मव॑र्णां॒ तामि॒होप॑ह्वये॒ श्रियम्‌॥ ४॥ च॒न्द्रां प्र॑भा॒सां य॒शसा॒ ज्वल॑न्तीं॒ श्रियं॑ लो॒के दे॒वजु॑ष्टामुदा॒राम्‌। तां प॒द्मिनी॑मीं॒ शर॑णम॒हं प्रप॑द्येऽल॒क्ष्मीर्मे नश्यतां॒ त्वां वृ॑णे॥ ५॥ आ॒दि॒त्यव॑र्णे तप॒सोऽधि॑जा॒तो वन॒स्पति॒स्तव॑ वृ॒क्षोऽथ बि॒ल्वः। तस्य॒ फलानि॒ तप॒सानु॑दन्तुमा॒या॑न्तरा॒याश्च॑ बा॒ह्या अल॒क्ष्मीः॥ ६॥ उपै॑तु॒ मां दे॑वस॒खः की॒र्तिश्च॒ मणि॑ना स॒ह। प्रा॒दु॒र्भू॒तोऽस्मि॑ राष्ट्रे॒ऽस्मिन्की॒र्तिमृ॑द्धिं द॒दातु॑ मे॥ ७॥ क्षुत्पि॑पा॒साम॑लां ज्ये॒ष्ठाम॑ल॒क्ष्मीं नाशया॒म्यहम्‌। अभू॑ति॒मस॑मृद्धिं॒ च सर्वां॒ निर्णुदमे॒ गृहात्‌॥ ८॥ गं॒धद्वा॒रां दु॑राध॒र्षां॒ नि॒त्यपु॑ष्टां करी॒षिणीम्‌। ई॒श्वरीं॑ सर्वभूता॒नां॒ तामि॒होप॑ह्वये॒ श्रियम्‌॥ ९॥ मन॑सः॒ काम॒माकू॑तिं॑ वा॒चः स॒त्यम॑शीमहि। प॒शू॒नां रू॒पमन्न॑स्य॒ मयि॒ श्रीः श्र॑यतां॒ यशः॑॥ १०॥ क॒र्दमे॑न प्र॑जाभू॒ता॒म॒यि॒ सम्भ॑वक॒र्दम। श्रियं॑ वा॒सय॑ मे कु॒ले मा॒तरं॑ पद्म॒मालि॑नीम्‌॥ ११॥ आपः॑ सृ॒जन्तु स्नि॒ग्धा॒नि॒ चि॒क्ली॒तव॑समे॒ गृहे। निच॑दे॒वीं मा॒तरं॒ श्रियं॑ वा॒सय॑ मे कु॒ले॥ १२॥ आ॒र्द्रां पु॒ष्करि॑णीं पु॒ष्टिं सु॒वर्णां हेम॒मालि॑नीम्‌। सू॒र्यां हि॒रण्म॑यीं ल॒क्ष्मीं जात॑वेदो म॒ आवह॥ १३॥ आ॒र्द्रां यः॒ करि॑णीं य॒ष्टिं पि॒ङ्गलां प॑द्म॒मालि॑नीम्‌। च॒न्द्रां हि॒रण्म॑यीं ल॒क्ष्मीं जात॑वेदो म॒ आव॑ह॥ १४॥ तां म॒ आव॑ह॒ जात॑वेदो ल॒क्ष्मीमन॑पगा॒मिनीम्‌। यस्यां॒ हि॑रण्यं॒ प्रभू॑तं॒ गावो॑दा॒स्योऽश्वान्वि॒न्देयं॒ पुरु॑षान॒हम्‌॥ १५॥ यः शुचिः॒ प्रय॑तो भू॒त्वा जु॒हुयादाज्य॒मन्व॑हम्‌। सूक्तं॑ प॒ञ्चद॑शर्चं॒ च श्री॒कामः॑ सत॒तं ज॑पेत्‌॥ १६॥

श्रीसूक्त की शब्दशः व्याख्या करते हुए गुरुजी ने कहा कि इस सूक्त में रामजी अग्नि से सीताजी को लौटाने की प्रार्थना कर रहे हैं। १५ मन्त्र ही रामजी ने क्यों बोले? क्योंकि १५वें वर्ष में सीताजी को लौटाकर वापिस ले जाना चाहते हैं। इस प्रकार सूक्त से १५ बार आहुति दी, तब ब्राह्मण वेश में अग्नि देव सीताजी को ले आए और रामजी से बोले कि इन्हें स्वीकार कीजिए-

तब अनल भूसुर रूप कर गहि सत्य श्री श्रुति बिदित जो। जिमि छीर सागर इंदिरा रामहिं समर्पी आनि सो॥ – रा.च.मा. ६/१०९/१०

१७. राम राज्य में कोई विधवा नहीं, यह सिद्ध करने के लिए दशरथ जी आ गए-

तेहि अवसर दसरथ तहँ आए। तनय बिलोकि नयन जल छाए॥ – रा.च.मा. ६/११२/१

१८.

प्रथम तिलक बसिष्ठ मुनि कीन्हा। पुनि सब बिप्रन आयसु दीन्हा॥ – रा.च.मा. ७/१२/५

मैं अपनी कथा में राम राज्य का आयोजन नहीं करता, जब तक अयोध्या में भगवान श्रीराम की जन्मभूमि पर मन्दिर का निर्माण नहीं हो जाता। जब मन्दिर का निर्माण हो जायेगा, तब फिर कथा कहेंगे और राम राज्य की धूमधाम से तैयारी करेंगे। १९. सीताजी का दूसरा वनवास नहीं, लव और कुश का जन्म अयोध्या के राजमहल में हुआ-

दुइ सुत सुंदर सीता जाए। लव कुश बेद पुरानन गाए॥ दुइ दुइ सुत सब भ्रातन केरे। भए रूप गुन शील घनेरे॥ – रा.च.मा. ७/२५/६,७

भरत जी के तक्ष और पुष्कल, लक्ष्मण जी के चन्द्रकेतु और अंगद तथा शत्रुघ्न जी के सुबाहु और शत्रुघाती पुत्र हुए।

सीताराम जय सीताराम सीताराम जय सीताराम सीताराम जय सीताराम सीताराम जय सीताराम

संकलनकर्त्री: प्रिया गर्ग सम्पादक : नित्यानन्द मिश्र