मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु पापयोनयः। स्त्रियोवैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥ – भ.गी. ९/३२
रा०कृ०भा० सामान्यार्थ – हे पृथानन्दन अर्जुन! प्रपत्तियोग से मुझ परमात्मा श्रीकृष्ण को आश्रय मानकर मेरी शरण में आये हुए जो भी पापयोनि में वर्तमान गजेन्द्र आदि के समान हैं, तथा स्त्रियाँ अर्थात् जिन्हें उपवीत, गायत्री आदि द्विजाति कर्मों में अधिकार नहीं है, तथा वैश्य, और शूद्र अर्थात् संस्कारवर्जित चतुर्थवर्णी हैं वे भी मेरी परम गति को प्राप्त हो जाते हैं। रा०कृ०भा० व्याख्या – पार्थ सम्बोधन का तात्पर्य यह है कि जैसे तुम्हारी मां कुन्ती, स्त्री शरीर प्राप्त करके भी मेरे भजन की महिमा से परम भागवत बन गई उसी प्रकार मेरी शरणागति में सबको अधिकार है। पापयोनयः कुछ आचार्यों ने “पापयोनयः” विशेषण स्त्रियों के लिए भी माना है पर यह उनकी हठधर्मिता और अविवेक है। स्त्री और शूद्र को वेद में अधिकार न होने से उनकी नीचता की कल्पना नहीं करनी चाहिये। तात्पर्य यह है कि वे इतने शुद्ध हो चुके होते हैं कि उनको इन संस्कारों की आवश्यकता ही नहीं है। संस्कार शुद्धि के लिए किये जाते हैं। जो स्वयं शुद्ध है उसे शुद्धि करने की क्या आवश्यकता। अतः वे भगवद्भजन करके परमगति को प्राप्त कर लेते हैं। इसलिए पापयोनयः का तात्पर्य गजेन्द्र, जटायु, श्रीभुशुण्डि आदि हैं। स्त्रियः – स्त्रियाँ जैसे पुलिन्द (भिल्ल) कन्यायें। श्रीमद्भागवत के अनुसार वे प्रभु के श्रीचरणाविन्द का कुंकुम लगाकर पूर्ण हो गयीं। जैसे –पूर्णाः पुलिन्द्य उरुगायपदाब्जरागश्रीकुङ्कुमेन दयितास्तनमण्डितेन। तद्दर्शनस्मररुजस्तृणरूषितेन लिम्पन्त्य आननकुचेषु जहुस्तदाधम्॥ – भा.पु. १०/२१/१७
अर्थात् – हे सखियों! राधाजी के वक्षः स्थल के आभूषणरूप श्रीवृन्दावन की घासों में लगे हुए भगवान् श्रीकृष्ण चन्द्र के अरुण चरण कमल के रंग के समान शोभा वाले कुंकुम से अपने मुख एवं वक्ष पर लेप करके भगवन्मिलन की आकांक्षारूप व्याधि को समाप्त करके ये भिल्लकन्याएँ भी पूर्णपुरुषोत्तम प्रभु से मिलकर पूर्ण हो गई हैं। इसी प्रकार यज्ञपत्नियों के सम्बन्ध में उनके पति कितने मधुर वचन कहते हैं –अहो पश्यत नारीणामपि कृष्णे जगद्गुरौ।दुरन्तभावं योऽविध्यन्मृत्युपाशान् गृहाभिधान्॥ नासां द्विजातिसंस्कारो न निवासो गुरावपि।न तपो नात्ममीमांसा न शौचं न क्रियाः शुभाः॥ अथापि ह्युत्तमश्लोके कृष्णे योगेश्वरेश्वरे।भर्क्तिदृढा न चास्माकं संस्कारादिमतामपि॥ – भा.पु. १०/२३/४१-४३
अर्थात् – अहो! देखो तो इन नारियों का भी जगद्गुरु श्रीकृष्ण में दुरन्तभाव, जिन्होंने गृह नामक मृत्यु के पाशों को भी तोड़ डाला। न इनका ब्राह्मणोचित संस्कार हुआ, न इन्होंने वेदाध्ययन के लिए गुरुकुल में निवास किया, न इन्होंने तपस्या की, न आत्मचिन्तन किया, न इनमें पवित्रता है, न ही शुभ क्रियाएँ। फिर भी योगेश्वरेश्वरे उत्तमश्लोक श्रीकृष्ण में इनकी ऐसी दृढ़भक्ति है जो कि संस्कारादि शेष्ठगुणम्पन्न हम ब्राह्मणों को भी प्राप्त नहीं हो सकी। वैश्याः – नन्दादि। इनके भाग्य की प्रशंसा करते हुए ब्रह्मा जी कहते हैं –अहो भाग्यमहो भाग्यं नन्दगोपव्रजौकसाम्। यन्मित्रं परमानन्दं पूर्णं ब्रह्म सनातनम्॥ – भा.पु. १०/१४/३२
अर्थात् – नन्दराय के व्रजवासियों का अहोभाग्य अहोभाग्य। क्योंकि जिनके मित्र के रूप में परमानन्दस्वरूप सनातन पूर्ण ब्रह्म श्रीकृष्ण विराज रहे हैं। शूद्राः – जैसे श्रीमद्भागवत में शुकाचार्य कहते हैं –किरातहूणान्ध्रपुलिन्दपुल्कसा आभीरकङ्का यवनाः खसादयः। येऽन्ये च पापा यदुपाश्रयाश्रयाः शुध्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नमः॥ – भा.पु. २/४/१८
इसका रोचक भावनुवाद स्वयं तुलसीदास जी महाराज ने कर दिया है। यथा –पाई न केहि गति पतित पावन राम भजि सुनु शठ मना। गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना। आभीर जवन किरात खस श्वपचादि अति अघरूप जे। कहि नाम बारक तेपि पावन होंहि राम नमामि ते॥ – रा.च.मा. ७/१३०/९
वस्तुतः पापयोनि शब्द सामान्य पशु आदि का बोधक हे, स्त्रियों का नहीं और न ही शूद्रों का। क्योंकि स्त्री माँ है और माता पिता से दस गुनी बड़ी होती है ऐसा स्मार्त वचन है। पितुर्दशगुणा माता गौरवेणातिरिच्यते। ‘द्वारं किमेकं नरकस्य नारी’ यह वचन अत्यन्त निन्दनीय है। क्योंकि इसका कोई आधार नहीं है।ढोल गवाँर शूद्र पशु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥ – रा.च.मा. ५/५९/६
यहाँ ताड़ना शब्द शिक्षा के अर्थ में आया है। जैसे नीति में एक वचन प्रयुक्त हुआ है –लालने बहवो दोषास्ताडने बहवो गुणाः। तस्मात्पुत्रं च शिष्यं च ताडयेन्न तु लालयेत्॥ – चाणक्यनीति
तो क्या बच्चे को पीटना चाहिए? नहीं। अनेकार्था हि धातवः। यहाँ ताड़न का अर्थ शिक्षण ही है। ठीक इसी प्रकार श्रीमानस लिखे जाने के समय तुलसीदास जी को विदेशी शासन से संघर्ष करना पड़ रहा था। वह शासन इस्लाम धर्म का था। इस्लाम के अनुसार नारी को पढ़ाना वर्जित है। आज भी अरब अमीरात में लड़कियों को नहीं पढ़ाया जाता। गोस्वामी जी ने इस परम्परा का विरोध करते हुए लिखा कि उनको शिक्षा देनी चाहिए। भगवान् कहते हैं – पापयोनि गजेन्द्र आदि मेरे नाम की टेर लगाकर तर गये।हे गोविन्द हे गोपाल।हे गोविन्द राखो सरन अब तो जीवन हारे। – सूरदास
मेरे रूप का चिन्तन करके गोपियाँ भवसागर से तरी। जैसा कि भगवान् स्वयं लीला के विश्राम क्षण में श्री व्रजाङ्गनाओं का स्मरण करते हुए उद्धव जी से कहते हैं –तास्ताः क्षपाः प्रेष्ठतमेन नीता मयैव वृन्दावनगोचरेण। क्षणार्धवत्ताः पुनरङ्ग तासां हीनाः मया कल्पसमा बभूवुः॥ – भा.पु. ११/१२/११
हे प्यारे उद्धव! श्री वृन्दावनविहारी मुझ कृष्ण के साथ रास रमती हुई गोपियों ने उन उन रात्रियों को आधे क्षण के समान बिताया और फिर मेरे वियोग में उनके लिए वे ही रातें कल्प के समान हो गईं।वैश्य नन्दादि मेरे लीलागान से मुझे प्राप्त हो गये जैसे –इति नन्दादयो गोपाः रामकृष्णकथां मुदा। कुर्वन्तो रममाणाश्च नाविन्दन् भववेदनाम्॥ – भा.पु. १०/११/५८
शुकाचार्य जी कहते हैं – हे महाराज परीक्षित्! इस प्रकार प्रसन्नता से बलरामश्रीकृष्ण की गुणगाथा गाते हुए और उन्हीं के प्रेमवन में विहार करते हुए नन्दादि गोपों ने इस भीषण संसार की पीड़ा का अनुभव नहीं किया।शूद्र मेरे धाम के सेवन से ही मेरा परम पद प्राप्त कर लेते हैं। जैसे श्रीभुशुण्डि पुर्वजन्ममें शूद्र होकर मेरे धाम श्री अवध के सेवनसे मुझसे अभिन्न परिपूर्णतम परात्पर परब्रह्म भगवान् श्रीराम की भक्ति प्राप्त कर लिए। जैसा कि श्री मानस में भी गोस्वामी जी कहते हैं –रघुपति पुरी जन्म तव भयऊ। पुनि तैं मम सेवा मन दयऊ॥ पुरी प्रभाव अनुग्रह मोरे। राम भगति उपजिहि उर तोरे॥ – रा.च.मा. ७/१०९/११-१२
जगद्गुरु श्रीमदाद्यरामानन्दाचार्य भी भगवान् के इस पक्ष से शत प्रतिशत सहमत है। वे कहते हैं –सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणो मताः शक्ता अशक्ताः पदयोर्जगत्पदे। अपेक्ष्यते तत्र बलं कुलं च नो न चापि कालो न विशुद्धतापि वा॥ – वैष्णमताब्जभास्कर
भगवान् का यह मन्त्र हिन्दू धर्म की परम उदारता का उत्कृष्ट उदाहरण है।