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भारतवर्ष धर्मप्राण देश है, स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति का मूलाधार भी धर्म ही है।यहाँ का एक-एक कण धर्म की भावना से ओत-प्रोत है।तैत्तिरीयारण्यक में कहा गया है – ‘धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा। लोके धर्मिष्ठं प्रजा उपसर्पन्ति। धर्मेण पापमपनुदन्ति। धर्मे सर्वं प्रतिष्ठितम्। तस्माद्धर्मं परमं वदन्ति। (१०।६३)’। अर्थात् , धर्म सम्पूर्ण विश्व की प्रतिष्ठा है। धर्म में ही सब कुछ प्रतिष्ठित है। यही कारण है कि धर्म को श्रेष्ठ कहा गया है। और इस भारतीय संस्कृति तथा धर्म को सनातन कहा गया है क्योंकि यह अपौरुषेय है अर्थात् किसी पुरुष विशेषने इसे नहीं बनाया (जिस प्रकार से क्रिश्चियन और इस्लाम धर्म के प्रवर्त्तक ईसा मसीह और मुहम्मद साहब हुए)। भारतीयों के लिए गर्भाधान से लेकर परलोकपर्यन्त पुत्रपौत्रादि परम्पराक्रम में प्रति क्षण अनुष्ठित कार्यों के लिए धर्म अपना प्रकाश डालता है। वेद, स्मृति, और विभिन्न पुराणों से इस धर्म का प्रतिपादन किया गया है। चूँकि यह सनातन धर्म है अतः स्वयं भगवान् द्वारा प्रतिष्ठापित इस धर्म की रक्षा भी प्रभु स्वयमेव करते हैं। यही अवतार का रहस्य भी है।जब-जब इस सनातन धर्म में कोई विक्षेपादि होता है तब-तब हरि विभिन्न अवतार (अंशावतार, कलावतार आदि) लेकर इसको निर्माल्य प्रदान करते हैं। इसी कड़ी में हमारे जगद्गुरु आद्यरामानन्दाचार्य भी हैं—सोऽवातरज्जगन्मध्ये जन्तूनां भवसङ्कटात्। पारं कर्तुं ह धर्मात्मा रामानन्द: स्वयं स्वभूः॥१॥ माघे कृष्णसप्तम्यां चित्रानक्षत्रसंयुते। कुम्भलग्ने सिद्धियोगे सप्तदण्डोदगे रवौ॥२॥ रामानन्दः स्वयं रामः प्रादुर्भूतो महीतले। कलौ लोके मुनिर्जातः सर्वजीवदयापरः॥३॥
भगवदवतार जगद्गुरु आद्य रामानन्दाचार्य ने प्रपन्न भक्तों और वैष्णवों के कल्याणार्थ व्रतोपवासादि का भी विधान किया है जिसमें एकादशी, रामनवमी, जानकीनवमी, हनुमज्जन्मोत्सव, नृसिंहजयन्ती, कृष्णाष्टमी, वामनद्वादशी तथा रथयात्रादि व्रतों एवं उत्सवों में सम्मिलित होने का आदेश भी दिया है। इन सारे व्रतोत्सवों को कैसे निर्णीत करें इस पर उनका आशीर्वचन भी उपलब्ध है। परन्तु इस लेख में केवल एकादशी-निर्णय की चर्चा की जायेगी। एकादशी को हरिवासर कहा गया है। भविष्यपुराण का वचन है—शुक्ले वा यदि वा कृष्णे विष्णुपूजनतत्परः। एकादश्यां न भुञ्जीत पक्षयोरुभयोरपि ॥
अर्थात्, विष्णुपूजा परायण होकर दोनों पक्षों (शुक्ल और कृष्ण) की ही एकादशी में उपवास करना चाहिये। लिङ्गपुराण में तो और भी स्पष्ट कहा है—गृहस्थो ब्रह्मचारी च आहिताग्निस्तथैव च। एकादश्यां न भुञ्जीत पक्षयोरुभयोरपि॥
अर्थात्, गृहस्थ, ब्रह्मचारी, सात्त्विकी किसी को भी एकादशी [दोनों पक्षों (शुक्ल और कृष्ण)] के दिन भोजन नहीं करना चाहिये। अब प्रश्न उठता है कि एकादशी व्रत का निर्धारण कैसे हो? वशिष्ठस्मृति के अनुसार दशमी विद्धा एकादशी संताननाशक होता है और विष्णुलोकगमन में बाधक हो जाता है। यथा—दशम्येकादशी यत्र तत्र नोपवसद्बुध:। अपत्यानि विनश्यन्ति विष्णुलोकं न गच्छति॥
अतः यह परमावश्यक है कि एकादशी दशमीविद्धा (पूर्वविद्धा) न हो। हाँ द्वादशीविद्धा (परविद्धा) तो हो ही सकती है क्योंकि ‘पूर्वविद्धातिथिस्त्यागो वैष्णवस्य हि लक्षणम्’ (नारदपाञ्चरात्र)। लेकिन वेध-निर्णय का सिद्धान्त भी सर्वसम्मत नहीं है। निम्बार्क सम्प्रदाय में स्पर्शवेध प्रमुख है।उनके अनुसार यदि सूर्योदय में एकादशी हो परन्तु पूर्वरात्रि में दशमी यदि आधी रात को अतिक्रमण करे अर्थात् दशमी यदि सूर्योदयोपरान्त ४५ घटी से १ पल भी अधिक हो तो एकादशी त्याग कर महाद्वादशी का व्रत अवश्य करे। यथा—अर्धरात्रमतिक्रम्य दशमी दृश्यते यदि। तदा ह्येकादशीं त्यक्त्वा द्वादशीं समुपोषयेत्॥
(कूर्मपुराण)। परन्तु कण्व स्मृति के अनुसार अरुणोदय के समय दशमी तथा एकादशी का योग हो तो द्वादशी को व्रत कर त्रयोदशी को पारण करना चाहिये। यथा—अरुणोदयवेलायां दशमीसंयुता यदि । तत्रोपोष्या द्वादशी स्यात्त्रयोदश्यां तु पारणम्॥
यहाँ पुराण और स्मृति के निर्देश में भिन्नता पायी जा रही है अतः शास्त्र-सिद्धान्त से स्मृति-वचन ही बलिष्ठ होता है। अतः यही सिद्धान्त बहुमान्य है। अपने रामानन्द-सम्प्रदाय का मत है कि वैष्णवों को वेध रहित एकादशी का व्रत रखना चाहिये।यदि अरुणोदय-काल में एकादशी दशमी से विद्धा हो तो उसे छोड़कर द्वादशी का व्रत करना चाहिये—एकादशीत्यादिमहाव्रतानि कुर्याद्विवेधानि हरिप्रियाणि। विद्धा दशम्या यदि साऽरुणोदये स द्वादशीन्तूपवसेद्विहाय ताम्॥
(श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर, ६७)। उदाहरणार्थ, भाद्रपद शु. ११ रविवार २०७० को उदया तिथि में एकादशी तो है पर पूर्ववर्ती दिन (शनिवार) दशमी की समाप्ति २८:४६ बजे हो रही है जो सूर्योदय (५:५२ बजे) से मात्र १घंटा ६ मि. अर्थात् पौने तीन घटी पहले है अतः अरुणोदय काल (२८:१६ बजे) में यह एकादशी दशमी-विद्धा है। फलतः इसे त्यागकर भाद्रपद शु. १२ सोमवार को पद्मा एकादशी का व्रत विहित है। यह वेध भी चार प्रकार का होता है- (१) सूर्योदय से पूर्व साढ़े तीन घटी का काल अरुणोदय वेध है (२) सूर्योदय से पूर्व २ घटी का काल अति-वेध है (३) सूर्य के आधे उदित हो जाने पर महावेध काल है तथा (४) सूर्योदय में तुरीय योग होता है। यथा—घटीत्रयंसार्द्धमथारुणोदये वेधोऽतिवेधो द्विघटिस्तुदर्शनात्। रविप्रभासस्य तथोदितेऽर्द्धे सूर्येमहावेध इतीर्यते बुधैः॥ योगस्तुरीयस्तु दिवाकरोदये तेऽर्वाक् सुदोषातिशयार्थबोधकाः।
(श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर, ७१-७२)। सूर्योदयकाल से पूर्व दो मुहुर्त संयुक्त एकादशी शुद्ध है और शेष सभी विद्धा हैं—पूर्णेति सूर्योदयकालतः या प्राङ्मुहूर्तद्वयसंयुता च। अन्या च विद्धा परिकीर्तिता बुधैरेकादशी सा त्रिविधाऽपि शुद्धा॥
(श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर, ७३)। शुद्धा एकादशी के भी तीन भेद हैं। यथा—एका तु द्वादशी मात्राधिका ज्ञेयोभयाधिका। द्वितीया च तृतीया तु तथैवानुभयाधिका॥ तत्राद्या तु परैवास्ति ग्राह्या विष्णुपरायणैः। शुद्धाप्येकादशी हेया परतो द्वादशी यदि ॥ उपोष्य द्वादशीं शुद्धान्तस्यामेव च पारणम्। उभयोरधिकत्वे तु परोपोष्या विचक्षणैः॥
(श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर, ७४-७६) अर्थात्, एक वह जिसमें केवल द्वादशी अधिक हो, दूसरी जिसमें दोनों अधिक हों तथा तीसरी जिसमें दोनों में कोई भी अधिक न हो। (अब इनमें से किसे ग्रहण किया जाय। जगद्गुरु आद्य रामानन्दाचार्य-चरण का आदेश है –) इनमें से वैष्णवों को प्रथम एकादशी अर्थात् द्वादशी मात्र का ग्रहण करना चाहिये, यदि परे द्वादशी की वृद्धि हो तो शुद्ध एकादशी भी छोड़ देनी चाहिये। विज्ञ-जनों को एकादशीरहित शुद्ध षष्ठीदण्डात्मक द्वादशी में उपवास कर अगले दिन अवशिष्ट द्वादशी में ही पारण भी कर लेना चाहिये। दोनों की अधिकता में पर का उपवास करना चाहिये। आगे आचार्य-चरण ने अष्टविध एकादशी का वर्णन इस प्रकार किया है—उन्मीलिनी वञ्जुलिनी सुपुण्याः सा त्रिस्पृशाऽथो खलु पक्षवर्द्धिनी । जया तथाऽष्टौ विजया जयन्ती द्वादश्य एता इति पापनाशिनी॥
(श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर, ७७) अर्थात्, उन्मीलिनी, वञ्जुलिनी, त्रिस्पर्शा, पक्षवर्द्धिनी, जया, विजया, जयन्ती और पापनाशिनी ये आठ द्वादशियाँ अत्यन्त पवित्र हैं। पद्मपुराणानुसार भी—एकादशी तु संपूर्णा वर्द्धते पुनरेव सा। द्वादशी न च वर्द्धेत कथितोन्मीलिनीति सा॥ संपूर्णैकादशी यत्र द्वादशी च यथा भवेत्। त्रयोदश्यां मुहुर्त्तार्द्धं वञ्जुली सा हरिप्रिया॥ शुक्ले पक्षेऽथवा कृष्णे यदा भवति वञ्जुली। एकादशीदिने भुक्त्वा द्वादश्यां कारयेद्व्रतम्॥
यहाँ स्पष्टतः कहा गया है कि शुक्ल अथवा कृष्ण पक्ष को यदि वञ्जुली हो तो एकादशी को भोजन कर द्वादशी का व्रत करें। ब्रह्मवैवर्तपुराण में भी यह वर्णन आया है। यथा—एकादशी भवेत्पूर्णा परतो द्वादशी भवेत्। तदा ह्येकादशीं त्यक्त्वा द्वादशीं समुपोषयेत्॥ पर्वाच्युतजयावृद्धौ ईश दुर्गान्तकक्षये। शुद्धाष्येकादशी त्याज्या द्वादश्यां समुपोषणम् ॥ इनमें चार तिथिजन्य और चार नक्षत्रजन्य हैं जो इस प्रकार हैं-
१. उन्मीलनी अरुणोदय काल में सम्पूर्ण एकादशी अगले दिन प्रातः द्वादशी में वृद्धि को प्राप्त हो परन्तु द्वादशी की वृद्धि किसी भी दशा में न हो। २. वञ्जुली:- एकादशी की वृद्धि न होकर द्वादशी की वृद्धि हो अर्थात् त्रयोदशी में मुहुर्तार्ध द्वादशी हो। (पारण द्वादशी मध्य होनी चाहिये)। उदाहरणार्थ आश्विन कृष्ण ११ सोमवार २०७० को एकादशी रहते हुए भी द्वादशी की वृद्धि परिलक्षित हो रही है अतः इन्दिरा एकादशी व्रत को सोमवार को त्यागकर मंगलवार को वञ्जुली महाद्वादशी के रुप में की जायेगी।ध्यान रहे कि पारण द्वादशी मध्य विहित होने के कारण इसे ०६:०४ तक कर लेनी चाहिए। ३. त्रिस्पर्शा:- अरुणोदय काल में एकादशी, सम्पूर्ण दिन-रात्रि में द्वादशी तथा पर दिन त्रयोदशी हो, किन्तु किसी भी दशामें दशमीयुक्त नहीं हो। ४. पक्षवर्द्धिनी:- अमावस्या अथवा पूर्णिमा की वृद्धि ।यथा वैशाख कृष्ण ११ रविवार २०७० को एकादशी वर्तमान होते हुये भी अमावस्या की वृद्धि होने के कारण वैशाख कृष्ण १२ सोमवार (पक्षवर्द्धिनी महाद्वादशी) को वरुथिनी एकादशी का उपवास विहित है। चार नक्षत्रयुक्त महाद्वादशी व्रत ये हैं यदि शुक्लपक्षीय द्वादशी १.पुनर्वसुयुता (जया) २. श्रवणयुता (विजया) ३. रोहिणीयुता (जयन्ती) तथा ४. पुष्ययुता (पापनाशिनी)। एकादशी (महाद्वादशी) व्रतोपवास का अन्त पारण के साथ होता है। कूर्मपुराणानुसार एकादशी को व्रत एवं द्वादशी को पारण होना चाहिए। किन्तु त्रयोदशी को पारण नहीं होना चाहिए, क्योंकि वैसा करने से १२ एकादशियों के पुण्य नष्ट हो जाते हैं । उदाहरणार्थ चैत्र शु. ११ सं. २०७० (२२ अप्रिल २०१३ सोमवार) के दिन कामदा एकादशी है अतः परवर्ती दिन मङ्गलवार अर्थात् २३ अप्रिल २०१३ को पारण करना होगा। परन्तु ध्यान रहे कि पारण सूर्योदयोपरान्त ७:४९ बजे के पहले ही कर लेना होगा। परन्तु एक दिन पूर्व दशमीयुक्ता एकादशी हो और दूसरे दिन एकादशीयुक्ता द्वादशी तो उपवास तो द्वादशी को होता है, किन्तु यदि उपवास के बाद द्वादशी न हो तो त्रयोदशी के दिन पारण होगा।उदाहरणार्थ फाल्गुन कृष्ण ११ मंगलवार सं. २०७० (२५ फरवरी २०१४) के अरुणोदयकाल में दशमी है और सूर्योदय में एकादशी है अतः आचार्य-चरण के अनुसार यह एकादशी दशमीविद्धा अतः अकरणीय है। अतः विजया एकादशी का व्रतोपवास फाल्गुन कृष्ण १२ बुधवार सं. २०७० (२६ फरवरी २०१४) को होगा । परन्तु अगले दिन गुरुवार २७ फरवरी २०१४ को त्रयोदशी तिथि है अतः द्वादशी तिथि की अप्राप्ति में त्रयोदशी को ही पारण होगा।जैसा कि वायुपुराण में कहा है-कलाप्येकादशी यत्र परतो द्वादशी न चेत्। पुण्यं क्रतुशतस्योक्तं त्रयोदश्यां तु पारणम्॥
एक और भी बात। पारण में आचार्य-चरण ने यह भी आदेश किया है किआषाढ़भाद्रोर्जसितेषु संगता मैत्रश्रवोऽन्त्यादिगताद्व्युपान्त्यैः। चेद्द्वादशी तत्र न पारणं बुधः पादैः प्रकुर्याद्व्रतवृंदहारिणी॥
(श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर, ७८)। अर्थात् यदि द्वादशी आषाढ़, भाद्र और कार्तिक मास शुक्ल पक्ष में अनुराधा, श्रवण, रेवती के आदि चरण, द्वितीय चरण और तृतीय चरण के साथ संयुक्त हो तो उसमें विद्वान् पारण न करे, क्योंकि वह समस्त व्रतों का नाशक है। अतः व्रतोपवास हेतु एकादशी-निर्णय एवं व्रत-समाप्ति के लिए उसके पारण-काल का निर्णय एकादशी का परमावश्यक अङ्ग है। यहाँ पर यह भी ध्यान देना गौरव की बात है कि एकादशी-सम्बन्धी आचार्यचरणनिर्दिष्ट उपरोक्त व्यवस्था हेमाद्रि (चतुर्वर्ग चिन्तामणि के रचयिता, कालखंड १२६०-७०) तथा चंडेश्वर (गृहस्थरत्नाकर आदि के रचयिता, कालखंड १३००-१३७०) के समकालीन है जिसका बहुत से विज्ञजन व्यवहार कर रहे हैं परन्तु उनके लिए तो रौरव की बात है जो लोग इसे अपनी परम्परा द्वारा उपदिष्ट मान रहे हैं । धर्म की आड़ में सत्य को छिपाना भी महान अधर्म है जिससे वैष्णवों को बचना चाहिए। ॥ नमो राघवाय ॥