पद २०२


॥ २०२ ॥
उत्कर्ष सुनत संतन को अचरज कोऊ जिन करौ॥
दुर्वासा प्रति स्याम दासबसता हरि भाखी।
ध्रुव गज पुनि प्रह्लाद राम सबरी फल साखी॥
राजसूय जदुनाथ चरन धोय जूँठ उठाई।
पांडव बिपति निवारि दिए बिष बिषया पाई॥
कलि बिसेष परचौ प्रगट आस्तिक ह्वै कै चित धरौ।
उत्कर्ष सुनत संतन को अचरज कोऊ जिन करौ॥

मूलार्थ – संतोंका उत्कर्ष सुनकर कोई आश्चर्य मत करो। दुर्वासाके प्रति श्याम­सुन्दर भगवान्‌ने भक्तवशताका वर्णन किया है। इसी प्रकार ध्रुव, गजेन्द्र, प्रह्लाद और फिर शबरीके द्वारा समर्पित रामजीके फल साक्षी हैं। युधिष्ठिरजीके राजसूय यज्ञमें भगवान् कृष्णने सबके चरण धोकर जूठन उठाया, नन्दा नाई बनकर सेवा की। भगवान्‌ने पाण्डवोंकी विपत्तिका निवारण किया। चन्द्रहासजीके यहाँ तो उन्हें दिया जा रहा था विष, पर वे पा गए धृष्टबुद्धि मन्त्रीकी विषया नामक कन्या। इसीपर तो गोस्वामीजीने कहा –

जाके पग नहि पानहीं ताहि दीन्ह गजराज।
बिषहिं देत बिषया दई राम गरीब निवाज॥

(तु.स.स.)

इस प्रकार अन्तिम चर्चा नाभाजीने चन्द्रहासजीकी की, और कहा कि कलियुगमें तो विशेष परिचय प्रकट हैं अर्थात् कृतयुग, त्रेतायुग और द्वापरयुगमें तो गिने-चुने भक्तोंकी चर्चा है परन्तु कलियुगमें सतत भगवान् भक्तोंकी रक्षा कर ही रहे हैं। अतः हे श्रोताओं! आस्तिक होकर इन भक्तोंके चरित्रोंको अपने हृदयमें धारण करो, और संतोंका उत्कर्ष सुनकर कोई भी किसी प्रकारका आश्चर्य मत करो।