पद १८३


॥ १८३ ॥
पूरन प्रगट महिमा अनँत करिहै कौन बखान॥
उदय अस्त परबत्त गहिर मधि सरिता भारी।
जोग जुगति बिश्वास तहाँ दृढ़ आसन धारी॥
ब्याघ्र सिंह गुंजै खरा कछु संक न मानै।
अर्द्ध न जाते पवन उलटि ऊरध को आनै॥
साखि सब्द निर्मल कहा कथिया पद निर्बान।
पूरन प्रगट महिमा अनँत करिहै कौन बखान॥

मूलार्थश्रीपूर्णदासजी अनन्त महिमासे युक्त होकर प्रकट हुए थे। उनका व्याख्यान कौन कर सकता है? उदयाचल और अस्ताचल पर्वतोंके मध्य एक गहरी नदी है। वहींपर उन्होंने अपनी भावनामें आसन बनाया। योगयुक्तिपर उनका विश्वास था, इसलिये अपनी भावनामें उस नदीपर जाकरके उन्होंने अपना दृढ़ आसन लगाया, जहाँ व्याघ्र और सिंह खड़े-खड़े गरजते थे। उन्होंने मनमें किसी भी प्रकारका संदेह नहीं माना, शङ्का नहीं की। उन्होंने नीचे जाते हुए अपान वायुको रोका और वे उसे ऊपर ले आए। उन्होंने साखी, शब्द और निर्मल निर्वाण पदका व्याख्यान किया।