पद १७८


॥ १७८ ॥
भगवंत रचे भारी भगत भक्तनि के सन्मान को॥
क्वाहब श्रीरँग सुमति सदानँद सर्बस त्यागी।
स्यामदास लघुलंब अननि लाखै अनुरागी॥
मारु मुदित कल्यान परस बंसी नारायन।
चेता ग्वाल गुपाल सँकर लीला पारायन॥
संत सेय कारज किया तोषत स्याम सुजान को।
भगवंत रचे भारी भगत भक्तनि के सन्मान को॥

मूलार्थ – भक्तोंके सम्मानके लिये ही भगवान्‌ने बहुत बड़े-बड़े भक्तोंकी रचना कर दी, जिनमेंसे (१) श्रीक्वाहबजी (२) सुन्दर बुद्धिवाले श्रीरङ्गजी (३) सर्वस्वका त्याग करनेवाले श्रीसदानन्दजी जैसे संत हुए। (४) संत श्रीश्यामदासजी (५) श्रीलघुलम्बजी (६) अनन्य अनुरागी श्रीलाखेजी (७) मारु रागमें मुदित श्रीकल्याणजी (८) श्रीपरशुरामजी (९) श्रीवंशी­नारायणजी (१०) श्रीचेताजी (११) श्रीग्वाल गोपालजी और (१२) श्रीहरिकी लीलामें पारायण श्रीशङ्करजी – इन लोगोंने संतोंकी सेवा की, बहुत बड़े कार्य किये और ये आज भी सदैव सुजान श्याम­सुन्दरको संतुष्ट करते रहते हैं।

सर्वस्वत्यागी सदानन्दजीके यहाँ एक संत आए। उन्होंने कहा – “मेरा रहनेके लिये कोई ठिकाना नहीं है, कोई व्यवस्था कर दीजिये।” सदानन्दजीने कहा – “मेरा घर तो आपकी सेवाके लिये ही है। आप इसीमें रह जाइए। मैं वनमें कुटी बनाकर रह लेता हूँ।” यह कहकर सदानन्दजीने अपना भरा-पूरा घर उन संतजीको दे दिया और वे स्वयं वनमें एक कुटी बनाकर रहने लगे। जब संतसेवामें इन्हें कष्ट हुआ तब भगवान्‌ने ही इनकी पूरी व्यवस्था कर दी और छकड़ोंसे अन्न लाकर इनके घरमें भर दिया। सदानन्दजीने निरन्तर संतसेवा की।