पद १६८


॥ १६८ ॥
दूबरो जाहि दुनियाँ कहै सो भक्त भजन मोटो महंत॥
सदाचार गुरु सिष्य त्यागबिधि प्रगट दिखाई।
बाहिर भीतर बिसद लगी नहिं कलिजुग काई॥
राघव रुचिर स्वभाव असद आलाप न भावै।
कथा कीरतन नेम मिले संतन गुन गावै॥
ताप तोलि पूरो निकष ज्यों घन अहरनि हीरो सहंत।
दूबरो जाहि दुनियाँ कहै सो भक्त भजन मोटो महंत॥

मूलार्थराघवदासजीका नाम पड़ गया था राघवदास दुबला, क्योंकि वे शरीरसे बहुत हट्टे-कट्टे नहीं थे, दुबले-पतले थे। नाभाजी कहते हैं कि जिन राघवदासजीको दुनिया दुबला-दुबला कहती थी, वे महंत राघवदासजी वास्तवमें भक्तोंके भजनसे मोटे हो गए थे, अर्थात् वे अन्तरङ्गसे मोटे थे, बहिरङ्गसे दुबले रहे होंगे। वे भीतरसे मोटे थे बाहरसे भले दुबले-पतले दिखते थे। उन्होंने सदाचार अर्थात् सन्तोंके जैसा आचरण किया और गुरु-शिष्य परम्परामें त्यागकी विधिको प्रकट दिखा दिया – वे स्वयं त्यागी थे और उन्होंने अपने शिष्योंको भी त्यागी रखा। राघवदासजी बाहर-भीतर दोनोंसे एक थे। उनमें कलियुगकी काई नहीं लगी थी अर्थात् उनमें कलियुगके दोष नहीं आए थे। राघवदासजीका स्वभाव बहुत सुन्दर था। उन्हें असद आलाप अर्थात् भगवद्विरुद्ध वार्तालाप अच्छा नहीं लगता था। भगवान्‌की कथा और भगवान्‌के कीर्तनमें उनका नेम अर्थात् नियम था। यदि संत मिलते थे तो वे निरन्तर सन्तोंका ही गुणगान करते थे। राघवदासजीका व्यक्तित्व उस प्रकार था जैसे हीरेका। जैसे हीरा तपाने पर, तोलनेपर, निकष (कसौटी)पर कसनेपर खरा उतरता है, और घनका प्रहार सहन करता है पर टूटता नहीं, उसी प्रकार राघवदासजी अपनी तपस्यामें तप गए थे, उनके गुरुदेवने उन्हें बार-बार तोला था अर्थात् उनका परीक्षण किया था, और संसारकी विपत्ति रूप घनोंके प्रहारसे भी वे टूटे नहीं अपितु भगवान्‌का भजन ही करते रहे। इसलिये जिन्हें सारा संसार दुबला कहता था, वे भक्तोंका भजन करके मोटे हो चुके थे। श्रीराघवदासजीकी जय!