पद १६७


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प्रगट अमित गुन प्रेमनिधि धन्य बिप्र जेहिं नाम धर्यो॥
सुंदर सील स्वभाव मधुर बानी मंगलकरु।
भक्तन को सुख देन फल्यो बहुधा दसधा तरु॥
सदन बसत निर्बेद सारभुक जगत असंगी।
सदाचार ऊदार नेम हरिकथा प्रसंगी॥
दयादृष्टि बसि आगरे कथा लोक पाबन कर्यो।
प्रगट अमित गुन प्रेमनिधि धन्य बिप्र जेहिं नाम धर्यो॥

मूलार्थश्रीप्रेमनिधि­मिश्रजी महाराजमें अनेक गुण प्रकट हुए। वह ब्राह्मण धन्यवादका पात्र है जिसने इनका प्रेमनिधि नाम रखा, वास्तवमें प्रेमकी ये निधि ही थे, सागर ही थे। उनका शील अर्थात् चरित्र और स्वभाव बहुत सुन्दर था। प्रेमनिधि­मिश्रजीकी वाणी बड़ी मधुर और मङ्गल करनेवाली थी। भक्तोंको सुख देनेके लिये ही मानो प्रेमनिधि­मिश्रजी दसधा अर्थात् प्रेमा भक्तिके दसों लक्षणोंके साथ एक कल्पवृक्षके रूपमें फले थे अर्थात् प्रकट हुए थे। तात्पर्य यह है कि प्रेमनिधि­मिश्रजी इस प्रकार दिखते थे मानो फला-फूला प्रेमका कल्पवृक्ष ही हो। घरमें रहते हुए भी वे निर्बेद अर्थात् वैराग्यवान् सारभोगी थे। वे जगत्‌से सदैव असंग रहते थे अर्थात् आसक्तिसे रहित रहा करते थे। वे सदाचारी थे, उदार थे और भगवान्‌की कथाके प्रसंगमें उनका नियम था। वे नियमित भगवान्‌की कथाके प्रसंगोंका श्रवण, चिन्तन और वाचन करते थे। आगरेमें रहते हुए भी उन्होंने सबपर दया-दृष्टि की तथा उनपर भगवान्‌की दयाकी दृष्टि थी। कथा लोक पाबन कर्यो अर्थात् प्रेमनिधि­मिश्रजी महाराजने अपनी कथाओंके द्वारा इस संसारको पावन किया था।