पद १३०


॥ १३० ॥
गोप्यकेलि रघुनाथ की मानदास परगट करी॥
करुणा वीर सिँगार आदि उज्ज्वल रस गायो।
पर उपकारक धीर कवित कविजन मन भायो॥
कोशलेश पदकमल अननि दासन ब्रत लीनो।
जानकिजीवन सुजस रहत निशि दिन रँग भीनो॥
रामायन नाटक्क की रहसि उक्ति भाषा धरी।
गोप्यकेलि रघुनाथ की मानदास परगट करी॥

मूलार्थश्रीमानदासजीने रघुनाथजीकी गोपनीय मधुरक्रीडाको प्रकट कर दिया। उन्होंने करुण, वीर, शृङ्गार, आदि उज्जवल रसोंका गान किया। मानदासजी परोपकारी थे और वे अत्यन्त धीर थे। उनकी कविता कविजनोंको बहुत अच्छी लगी या उन्हें भा गई थी। मानदासजी भगवान् कोशलेन्द्र श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलमें अनन्य­दासत्वका व्रत लिये थे। जानकीजीवन श्रीरामचन्द्रजीके सुयशके रङ्गमें वे दिन-रात भीगे रहते थे। उन्होंने रामायण और श्रीहनुमान्‌जी द्वारा विरचित महानाटकके रहस्यों एवं युक्तियोंसे युक्त भक्तिमय भाषाको स्वीकारा था अर्थात् हिन्दीमें वाल्मीकीय­रामायण और महानाटकके भावोंका अनुवाद किया था।