पद १२९


॥ १२९ ॥
कलि कुटिल जीव निस्तारहित बाल्मीकि तुलसी भये॥
त्रेता काब्य निबंध कियो सत कोटि रमायन।
इक अच्छर उद्धरे ब्रह्महत्यादि परायन॥
अब भक्तन सुख देन बहुरि लीला बिस्तारी।
रामचरन रसमत्त रहत अहनिसि ब्रतधारी॥
संसार अपार के पार को सुगम रूप नौका लये।
कलि कुटिल जीव निस्तारहित बाल्मीकि तुलसी भये॥

मूलार्थ – कलिकालके कुटिल जीवोंके निस्तारके लिये वाल्मीकिजी ही तुलसीदासजीके रूपमें प्रकट हुए थे। त्रेतायुगमें उन्होंने सौ करोड़ रामायणोंके रूपमें काव्यका निबन्धन किया था। वाल्मीकिजीद्वारा कृत सौ करोड़ रामायणोंका यदि पारायण किया जाए तो एक-एक अक्षर ब्रह्महत्या जैसे पापोंको नष्ट कर देता है। अब भक्तोंको सुख देनेके लिये तुलसीदासजीके रूपमें उन्होंने फिर लीलाका विस्तार किया। गोस्वामी तुलसीदासजी सदैव व्रत धारण करके दिन-रात रामचन्द्रजीके चरणारविन्दके रसमें मत्त रहते थे। अपार संसार­सागरके पारके लिये उन्होंने सुगम रूपमें रामकथा रूप नौकाको स्वीकार किया था, अर्थात् उनके द्वारा प्रणीत श्रीरामचरितमानसके सात काण्ड सुगम नौकाके समान हो गए थे। कलिकालके कुटिल जीवोंके निस्तारके लिये वाल्मीकिजी ही तुलसीदासजी बन गए।

तुलसीदासजीके चरित्रको कौन गा सकता है? तदपि संक्षिप्त चरित्रका उल्लेख इस प्रकार है। भविष्योत्तर पुराणके प्रतिसर्ग पर्वमें ऐसा कहा गया है –

वाल्मीकिस्तुलसीदासः कलौ देवि भविष्यति।
रामचन्द्रकथामेतां भाषाबद्धां करिष्यति॥

(भ.पु.प्र.प. ४.२०)

भविष्योत्तर पुराणमें संपूर्ण श्रीरामकथा कहकर भगवान् भूतभावन शङ्करजी, भगवती पार्वतीजीसे कहते हैं – “हे पार्वतीजी! महर्षि वाल्मीकि ही कलियुगमें तुलसीदास बनेंगे और इस रामकथाको भाषाबद्ध करेंगे अर्थात् अवधी भाषामें निबद्ध करेंगे।”

जब वाल्मीकीय­रामायणके श्रवणार्थ अपने पास बारम्बार आए हुए श्रीहनुमान्‌जीका महर्षि वाल्मीकिजीने वानरजातिको श्रीरामकथामें अनधिकारी कहकर अपमान किया और उसकी प्रतिक्रियामें श्रीहनुमान्‌जी महाराजने वाल्मीकीय­रामायणसे कोटि­गुणित सुन्दर हनुमन्नाटक अथवा महानाटक नामसे नाट्यशैलीमें श्रीरामकथा प्रस्तुत की, यथा –

महानाटकनिपुणकोटिकपिकुलतिलकगानगुणगर्वगन्धर्वजेता।

(वि.प. २९.३)

तब वाल्मीकिजीके अनुनय-विनय करनेपर निरभिमान श्रीहनुमान्‌जीने शिलापर लिखित संपूर्ण श्रीराम­कथा­पटलको समुद्रमें फेंक दिया, जिसके कतिपय अंश आज भी उपलब्ध होते हैं। उसी समय श्रीअञ्जनानन्द­वर्धन हनुमान्‌जीने वाल्मीकिजीको तुलसीदासजीके रूपमें सामान्य ग्राम्यभाषामें श्रीरामकथा गानेका निर्देश दिया कि वे (महर्षि वाल्मीकि) ही आगामी कराल कलिकालमें तुलसीदासके रूपमें अवतीर्ण होंगे और हिन्दी भाषामें संपूर्ण शतकोटि­रामायणात्मक श्रीरामचरितका गान करेंगे। भगवान् श्रीशिवजीकी इस भविष्यवाणीके अनुसार स्वयं महर्षि वाल्मीकि श्रावण शुक्ल सप्तमी विक्रमी संवत् १५५४में श्रीचित्रकूट तथा प्रयागके मध्यवर्ती श्रीयमुना­तटपर बसे हुए राजापुर नामक ग्राममें पराशर­गोत्रीय परसोनाके दूबे ब्राह्मणश्रेष्ठ पण्डित आत्माराम दूबेकी धर्मपत्नी पूज्य माता हुलसीजीके गर्भसे तुलसीदासके रूपमें प्रकट हुए, यथा –

पन्द्रह सौ चौवन बिसै कालिन्दी के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी तुलसी धरे शरीर॥

होनहार बिरवानके होत चीकने पात लोकोक्ति आज अक्षरशः चरितार्थ हुई। जन्मके समय ही तुलसीदासजी पाँच वर्षके बालकके समान हृष्ट-पुष्ट थे। वे जन्म लेकर रोए नहीं, जनमते ही उनके मुखसे राम निकला, और उसी समय भगवान् श्रीरामजीने आकाशवाणी करके उस अद्भुत बालकका नाम रामबोला रखा। जैसा कि गोस्वामीजी स्वयं विनयपत्रिकामें कहते हैं –

रामको गुलाम नाम रामबोला राख्यो राम

(वि.प. ७६.१)

उस नवजात बालकपर प्रभुकी अलौकिक कृपा देखकर तथा स्वयं श्रीराघवेन्द्र सरकारसे नवजात बालकका रामबोला नाम सुनकर प्रसन्नता एवं विस्मयसे भरे देवता आकाशमें बधावे बजाने लगे, इससे घबराए हुए दूरदर्शिताशून्य आत्माराम दूबेने बालकको दूर फिंकवा दिया। इस विडम्बनाकी चर्चा करते हुए स्वयं गोस्वामी तुलसीदासजी चीखकर कहते हैं –

जायो कुलमंगन बधावनो बजायो सुनि
भयो परिताप पाप जननी जनक को।

(क. ७.७३)

अर्थात् नवजात बालककी अलौकिक घटनाओंने माताको परिताप तथा पिताको पापसे समाकुल कर दिया, जिसके कारण वे दोनोंकी छत्रच्छायासे दूर हो गए। वे कहते हैं –

मातु पिता जग जाइ तज्यो बिधिहूँ न लिखी कछु भाल भलाई।

(क. ७.५६)

विनयपत्रिकाके अन्तिम आठ पदोंमें तो महाकविने बार-बार अपनी दीनता और व्यथाका वर्णन किया है। बालकके प्रति पतिके असहिष्णु व्यवहारकी आशङ्कासे माता हुलसीने उसे मुनिया नामक एक दासीके साथ उसीके पीहर हरिपुर भिजवाकर स्वयं भी हरिपुरका मार्ग पकड़ लिया, अर्थात् नश्वर शरीर छोड़ दिया। अतः हरिपुरका गोस्वामीजी अपने साहित्यमें बार-बार स्मरण करते हैं –

हरिपुर गयेउ परम बड़भागी।

(मा. ४.२७.८)

सुखी हरिपुर बसत होत परीछितहिं पछिताय।

(वि.प. २२०.५)

माँ हुलसी बालकके प्रति वात्सल्यवती थीं, इसीलिये तुलसीदासजीने माँके वात्सल्यका स्मरण करके उन्हें भावाञ्जलि दी –

रामहिं प्रिय पावनि तुलसी सी। तुलसिदास हित हिय हुलसी सी॥

(मा. १.३१.१२)

दूसरी ओर महाकविने आत्मारामका कहीं नाम भी नहीं लिया। केवल इतना ही कहकर संतोष कर लिया कि –

तन जनतेऊ कुटिल कीट ज्यों तज्यो मात पिताहूँ।

(वि.प. २७५.२)

संयोगवशात् यह तुलसीतरु मुनिया दासी मालिनीका भी सिञ्चन चिरकाल तक नहीं पा सका और उसे प्रभुके सहारे छोड़कर वह भी साकेतवासिनी हो गई। अब तो भगवती पार्वतीजी ही बालक रामबोलाका लालन-पालन करने लगीं। गोस्वामी तुलसीदासजी बार-बार इस घटनापर कृतज्ञताबोध करते हैं –

गुरु पितु मातु महेश भवानी।

(मा. १.१५.३)

मेरे माय बाप गुरु शंकर भवानिये

(क. ७.१६८)

पाँच वर्षके अनन्तर रामबोलाके जीवनमें एक ऐतिहासिक नाटकीय मोड़ आया। हरिपुरके बाहर वृक्षोंके नीचे अनाथवत् जीवन बिता रहे बालक रामबोलाके पास शिवजीकी प्रेरणासे जगद्गुरु श्रीमदाद्य रामानन्दाचार्यजीके द्वादश प्रमुख शिष्योंमें चतुर्थ सुयोग्य शिष्य सनकादिकोंके समवेतावतार श्रीनरहरिदास (श्रीनरहर्यानन्दजी महाराज) स्वयं दर्शन देने पधारे और बोले – “बालक! तेरा क्या नाम है?”

बालकने उत्तर दिया – “रामबोला।”

“क्यों बालक?” – गुरुदेवने पूछा।

बालक – “क्योंकि जन्मके समय मेरे मुखसे रामनाम निकला था।”

गुरुदेव – “यह नाम किसने रखा?”

बालक – “स्वयं श्रीरामजीने।”

गुरुदेव – “तू क्या काम करता है?”

बालक – “कभी दो-चार बार राम राम कह लेता हूँ।”

राम को गुलाम नाम रामबोला राख्यो राम
काम यहै नाम द्वै हों कबहुँ कहत हौं।

(वि.प. ७६.१)

गुरुदेव – “क्या करोगे?”

बालक – “आपका चेला बनूँगा।”

गुरुदेव – “तुम्हारे परिवारमें कोई है?”

बालक – “कोई नहीं।”

गुरुदेव – “विवाहादि?”

बालक – “कोई इच्छा नहीं।”

बस, अब तो कृपा­कादम्बिनी बरस पड़ी बालक रामबोलापर और श्रीनरहरिदासजी महाराजने बालक रामबोलाका व्रतबन्ध संस्कार करके उन्हें गायत्री दीक्षा तथा पञ्चसंस्कारपूर्वक श्रीरामानन्दीय परम्परामें विरक्त श्रीवैष्णव दीक्षा दे दी और रामबोलाके स्थानपर तुलसीदास यह सांप्रदायिक श्रीवैष्णवसाधूचित नाम रख दिया। अब तो उनका सब सन्तों तथा सद्गुरु महाराजका दिया हुआ एक सुन्दर-सा नाम तुलसीदास समस्त दिग्दिगन्तमें विख्यात हो गया –

तुलसी तुलसी सब कहैं तुलसी बन की घास।
कृपा भई रघुनाथ की तुलसी तुलसीदास॥

केहि गिनती महँ गिनती जस बन घास।
राम भजत भे तुलसी तुलसीदास॥

(ब.रा. ७.१०)

जो सुमिरत भए भाँग ते तुलसी तुलसीदास।

(मा. १.२६)

गोस्वामीजीने अपनी विरक्त­दीक्षाकी घटनाको बड़ी ही नाटकीय पद्धतिसे विनय­पत्रिकामें प्रस्तुत किया है –

बूझ्यो ज्यों ही कह्यो मैं हूँ चेरा ह्वैहौ रावरो जू
मेरो कोऊ कहूँ नहिं चरन गहत हौं।
मींजो गुरु पीठ अपनाइ गहि बाँह बोलि
सेवक सुखद सदा बिरद बहत हौं।
लोग कहैं पोच सो न सोच न सँकोच मेरे
ब्याह न बरेखी जाति पाँति न चहत हौं।
तुलसी अकाज काज राम ही के रीझे खीझे
प्रीति की प्रतीति ताते मुदित रहत हौं॥

(वि.प. ७६.३-४)

ब्याह न बरेखी जाति पाँति न चहत हौं (वि.प. ७६.४) – गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी महाराजका यह वचन ही इस तथ्यको पूर्णतया स्पष्ट कर रहा है कि न तो तुलसीदासजीका विवाह हुआ था और न ही उनका रत्नावली नामक किसी महिलासे कोई लेना-देना था। अभिनव­वाल्मीकि तुलसीदासजी महाराज बाल्यकालीन साधु थे। कतिपय शास्त्र­साहित्यानभिज्ञ पण्डितम्मन्योंकी कृपाने तुलसीदासजी जैसे श्रीवैष्णवरत्नके साथ रत्नावलीकी घटना जोड़ दी। हनुमानबाहुकमें भी गोस्वामीजी स्वयंको बाल्यकालीन साधु ही कहते हैं –

बालपने सूधमन राम सनमुख भयो
रामनाम लेत माँगि खात टूक टाक हौं।

(ह.बा. ४०)

जगद्गुरु श्रीमदाद्य रामानन्दाचार्यजीके चतुर्थ कृपापात्र श्रीनरहर्यानन्द (नरहरिदास)जीकी विरक्त­दीक्षाने अब तो इस जङ्गम तुलसीतरुमें श्रीरामभक्ति­सुरभि उद्बुद्ध कर दी तथा सद्गुरुदेव श्रीनरहरिदासजी अभिनव­शिष्य अभिनव­वाल्मीकि तुलसीदासजीको अपने साथ सूकरक्षेत्र ले गए एवं वहाँ उन्होंने सनकादिके रूपमें महर्षि याज्ञवल्क्यजीसे प्राप्त पारम्परिक शिवभाषित श्रीरामचरितमानस कथा श्रीतुलसीदासजीको बार-बार सुनाई। गोस्वामीजी इस तथ्यकी स्पष्टतामें स्वयं अपना अनुभव प्रस्तुत करते हैं –

मैं पुनि निज गुरु सन सुनी कथा सो सूकरखेत।
समुझी नहिं तस बालपन तब अति रहेउँ अचेत॥

(मा. १.३०क)

अर्थात् उसी परम्पराप्राप्त श्रीरामकथाको सूकरक्षेत्रमें अपने गुरुजीसे मैंने अर्थात् तुलसीदासने सुना, परन्तु बाल्यावस्थाके कारण मैं अचेत था और उसे नहीं समझ पाया। फिर भी उन्होंने बारम्बार समझाई, और वही कथा मैं भाषाबद्ध कर रहा हूँ। अपने गुरुदेवका नाम भी तुलसीदासजीने आलंकारिक मुद्रामें स्मरण किया –

बन्दउँ गुरुपद कंज कृपासिन्धु नररूप हरि।

(मा. १ मङ्गलाचरण सोरठा ५)

गुरुदेवकी कृपासे ही तुलसीदासजीने समस्त पुराणों और निगमागमोंका सहजतः अध्ययन कर लिया। एक प्रेतकी कृपासे उन्हें काशी कर्णघण्टामें श्रीहनुमान्‌जी महाराजके दिव्य दर्शन हुए और संकटमोचन स्थल तक आते-आते गोस्वामीजीको हनुमान्‌जीका पूर्ण परिचय प्राप्त हो गया। वहीं पश्चिमाभिमुख हनुमान्‌जीने एक हाथ अपनी छातीपर रखकर दूसरे श्रीहस्तकमलसे दक्षिणकी ओर संकेत करते हुए श्रीरामजीके दर्शनके लिये तुलसीदासजीको चित्रकूट जानेकी आज्ञा दी। प्रेतपर कृतज्ञभाव रखते हुए गोस्वामीजी मानसजीके आरम्भमें उसकी भी वन्दना करते हैं –

देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गन्धर्व।
बन्दउँ किन्नर रजनिचर कृपा करहु अब सर्व॥

(मा. १.७)

श्रीहनुमान्‌जीकी आज्ञासे गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी महाराज श्रीचित्रकूट पधारे और वहाँ निरन्तर श्रीरामनामकी जपसाधना करने लगे। एक दिन श्रीकामदगिरिके परिक्रमा­मार्गमें अपने सद्गुरुदेव श्रीनरहरिजीकी गुफाके पास अपने ही द्वारा लगाए हुए पीपल वृक्षके नीचे खड़े तुलसीदासजीने उस वृक्षसे थोड़ी दूर बाईं ओरसे आते हुए मृगया वेषमें सुशोभित, हरित­परिधानसे सुसज्जित, अलौकिक घोड़ोंपर विराजमान, अश्वारोहणकुशल दो श्याम-गौर राजकुमारोंको निर्निमेष नयनोंसे निहारा। इस झाँकीने यद्यपि गोस्वामी श्रीतुलसीदासजीको सौन्दर्य­सागरमें डुबो दिया, परन्तु वे प्रभु श्रीरामलक्ष्मणजीको पहचान नहीं पाए। पुनः जब श्रीहनुमान्‌जीने मिलकर उनके समक्ष पधारे श्रीरामलक्ष्मणजीका परिचय दिया तब तो गोस्वामीजी बहुत दुःखी हुए। श्रीहनुमान्‌जीका आश्वासन पाकर तुलसीदासजीने पुनः श्रीरामनामकी जपसाधना प्रारम्भ की।

विक्रम संवत् १६२०की माघ कृष्ण अमावस्या अर्थात् मौनी अमावस्याके परम पावन पर्वपर श्रीचित्रकूटके रामघाटपर बनी अपनी कुटियामें विराजमान मलयचन्दन उतारते हुए श्रीतुलसीदासजीके समक्ष श्रीरामलक्ष्मण दो बालकोंके रूपमें उपस्थित हुए और बोले – “ऐ बाबा! हमें भी तो चन्दन दो।” इन भुवनसुन्दर बालकोंको देखकर श्रीतुलसीदासजी महाराज ठगे-से रह गए और भगवान् श्रीरामजी अपने मस्तकपर चन्दनका तिलक लगाकर तुलसीदासजीके भी मस्तकपर मलयगिरि­चन्दनसे ऊर्ध्वपुण्ड्र करने लगे। तब श्रीहनुमान्‌जीने सोचा – “कहीं यह बाबा फिर न ठगा जाए और प्रभुको न पहचान पाए,” अतः अञ्जनानन्द­वर्धन प्रभु श्रीहनुमन्तलालजी सुन्दर तोतेका वेष बनाकर कुटीके निकटस्थ आमकी डालपर बैठकर प्रभुके परिचयसे ओत-प्रोत यह दोहा बोले –

चित्रकूट के घाट पर भइ सन्तन की भीर।
तुलसिदास चन्दन घिसें तिलक देत रघुबीर॥

आज भी सामान्य तोते चित्रकूटी दूध रोटी ही पहले बोलते हैं। अब क्या था! समझ गए गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज प्रभुके आगमनको और पहचान गए हुलसीहर्षवर्धन प्रभु अपने परमाराध्य परमप्रिय परमपुरुष परमसुन्दर नीलजलधरश्याम लक्ष्मणाभिराम भगवान् श्रीरामजी को। गोस्वामीजीने विनय­पत्रिकाके उत्तरार्धमें इस घटनाका स्पष्ट संकेत करते हुए कृतज्ञता­ज्ञापन किया –

तुलसी तोकौ कृपाल जो कियौ कोसलपाल।
चित्रकूट के चरित चेत चित करि सो।

(वि.प. २६४.५)

अब तो प्रभु श्रीरामजीने ही इस जङ्गमतुलसीकी सुगन्धिको दिग्दिगन्तमें बिखेरनेका निर्णय ले लिया और उनकी प्रेरणासे भगवान् भूतभावन शङ्करजीने चैत्रशुक्ल सप्तमी विक्रम संवत् १६३१की रातमें स्वप्नमें ही श्रीतुलसीदासजी महाराजको लोकभाषामें श्रीरामगाथा लिखनेकी प्रेरणा दी, जिसका उल्लेख करते हुए गोस्वामीजी स्वयं कहते हैं –

सपनेहुँ साँचेहु मोहि पर जौ हरगौरि पसाउ।
तौ फुर होउ जो कहेउँ सब भाषा भनिति प्रभाउ॥

(मा. १.१५)

काशीमें भगवान्‌ श्रीशङ्करजीका आदेश पाकर तुलसीदासजी महाराज श्रीअवध पधारे और चैत्रमासकी रामनवमीके मध्याह्न­वर्ती अभिजित् मुहूर्तमें गोस्वामी श्रीतुलसीदासजीके हृदयाकाशमें श्रीरामचरितमानसका प्रकाश हुआ-

संबत सोरह सै एकतीसा। करउँ कथा हरि पद धरि सीसा॥
नौमी भौम बार मधुमासा। अवधपुरी यह चरित प्रकासा॥

(मा. १.३४.४५)

श्रीअवध, श्रीकाशी तथा श्रीचित्रकूटमें निवास करके महाकवि गोस्वामी श्रीतुलसीदासजीने सप्त­प्रबन्धात्मक इस महाकाव्य श्रीरामचरितमानसजीकी रचना संपन्न कर ली। हुलसीनन्दन श्रीवाल्मीकि­नवावतार गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी महाराजकी सहज­समाधि­लब्ध महादेवभाषाने अपनी लोकप्रियतासे संपूर्ण विश्वकी मानवजातिको मन्त्रमुग्ध कर लिया और एक ही साथ महर्षियोंकी तपस्या, आचार्योंकी वरिवस्या तथा कविवर्योंकी नमस्या रूप त्रिवेणीसे मण्डित होकर यह मानस­प्रयाग सारस्वतोंके लिये जङ्गम तीर्थराज बन गया। श्रीरामचरितमानसजीकी इतनी ख्याति बढ़ी कि जिससे खल स्वभाववाले मानी पण्डितोंको अकारण ईर्ष्या होनी स्वाभाविक थी और उन्होंने श्रीकाशीमें इस प्रकारका बवंडर भी खड़ा किया कि तुलसीदासने ग्राम्य भाषामें श्रीरामकथा लिखकर देवभाषा संस्कृतका अपमान किया है, परन्तु सत्य तो सत्य ही रहता है और वैसा ही हुआ। इस यथार्थकी परीक्षाके लिये श्रीकाशीके भगवान्‌ श्रीविश्वनाथजीके मन्दिरमें सभी ग्रन्थोंके नीचे श्रीरामचरितमानसजीकी पोथी रख दी गई और पट बंद कर दिया गया। जब दूसरे दिन प्रातःकाल पट खुला तब श्रीरामचरितमानसजीकी पोथी सभी ग्रन्थोंके ऊपर दिखाई दी जिसके मुख्य पृष्ठपर सत्यं शिवं सुन्दरम् लिखकर भगवान्‌ श्रीविश्वनाथजीने स्वयं अपने हस्ताक्षर कर दिये थे। इस दृश्यने भगवद्विमुख विद्याभिमानियोंके मुख काले किये एवं सभीने एक मतसे यह तथ्य स्वीकार किया कि यदि संस्कृत भाषा देवभाषा है तो श्रीगोस्वामि­तुलसीदासकृत श्रीरामचरितमानसजीकी भाषा महादेवभाषा है, क्योंकि संस्कृतमें उद्भट विद्वान् होकर भी गोस्वामी श्रीतुलसीदासजीने महादेवजीकी आज्ञासे श्रीरामचरितमानसजीको लोकभाषामें लिखा। जब श्रीरामचरितमानसजीको काशीके तत्कालीन मूर्धन्य विद्वान् अद्वैतसिद्धिकार श्रीमधुसूदन सरस्वतीने देखा तो वे आश्चर्यचकित रह गए और उन्होंने मानस और मानसकारकी प्रशस्तिमें एक बड़ा ही अद्भुत श्लोक लिखा –

आनन्दकानने कश्चिज्जङ्गमस्तुलसीतरुः।
कविता मञ्जरी यस्य रामभ्रमरभूषिता॥

अर्थात् इस आनन्दवन श्रीकाशीमें श्रीगोस्वामी तुलसीदासजी एक अपूर्व जङ्गम अर्थात् चलते-फिरते श्रीतुलसीवृक्ष ही हैं जिनकी कविता रूपी मञ्जरीपर निरन्तर श्रीरामजी भ्रमर बनकर मँडराते रहते हैं, इसलिये उनकी कविता रूपी मञ्जरी सर्वदैव श्रीराम रूप भ्रमरसे समलङ्कृत रहती है। तात्पर्य यह है कि जैसे श्रीतुलसीमञ्जरीको भ्रमर नहीं छोड़ता, उसी प्रकार श्रीतुलसीदासजीकी कविताको भगवान्‌ श्रीरामजी भी कभी नहीं छोड़ते, उनका इससे स्वाद्य-स्वादक-भाव संबन्ध है।

श्रीरामचरितमानसजीके संबन्धमें एक चमत्कारिक ऐतिह्य (घटना) प्रसिद्ध है। गोस्वामीजी जिन दिनों श्रीकाशीमें विराजते थे और तत्कालीन श्रीकाशी­नरेशपर उनकी कृपा भी थी, उसी समय एक विचित्र घटना घटी। श्रीकाशी­नरेशकी द्रविड़­नरेशसे परम मित्रता थी और इन दोनोंमें एक ऐसी सन्धि हो गई थी कि वे अपनी होनेवाली विषमलिङ्गी सन्ततियोंमें वैवाहिक संबन्ध करेंगे अर्थात् यदि द्रविड़­नरेशके यहाँ प्रथम पुत्र आता है तो उसका श्रीकाशी­नरेशकी प्रथम होनेवाली पुत्रीसे संबन्ध होगा। यदि इसके विपरीत श्रीकाशी­नरेशको प्रथम पुत्र उत्पन्न होगा तो वह द्रविड़ नरेशकी प्रथम होने वाली पुत्रीका पति बनेगा। परन्तु संयोगसे दोनों नरेशोंके यहाँ प्रथम बार पुत्रियोंका ही जन्म हुआ, किन्तु काशी­नरेशने असत्यका अवलम्ब लेकर अपनी पुत्रीको पुत्रके रूपमें ही प्रस्तुत किया। फलतः दोनोंकी सन्धिके अनुसार श्रीकाशी­नरेशके पुत्रके साथ (जो वास्तवमें पुत्री थी), द्रविड़­राजपुत्रीका विवाह निश्चित हो गया। गुप्तचरोंसे वास्तविकताका समाचार मिलनेपर द्रविड़­नरेशने अत्यन्त क्रुद्ध होकर श्रीकाशी­नरेशपर आक्रमण करनेका निश्चय कर लिया, अनन्तर श्रीकाशी­नरेश भयभीत होकर गोस्वामी श्रीतुलसीदासजीकी शरणमें आए तब गोस्वामीजी ने

मन्त्र महा मनि बिषय ब्याल के। मेटत कठिन कुअंक भाल के॥

(मा. १.३२.९)

इस पङ्क्तिसे श्रीमानसजीके प्रत्येक दोहेको संपुटित करके श्रीरामचरितमानसजीका नवाहपारायण कराया और हो गया चमत्कार! श्रीकाशी­नरेशकी पुत्री पुत्ररूपमें परिणत हो गई। फिर उसका द्रविड़­राजपुत्रीके साथ महोत्सवपूर्वक विवाह संपन्न हुआ। इस ऐतिहासिक सत्य घटनासे श्रीमानसजीके प्रति लोगोंकी आस्था जगी, अद्यावधि जग रही है और भविष्यमें भी जगती रहेगी।

गोस्वामी श्रीतुलसीदासजीके जीवनका प्रत्येक क्षण श्रीसीता­रामजीके श्रीचरणारविन्दोंसे जुड़ा रहा और उनका मनोमिलिन्द उसी परमप्रेम­पीयूष­मकरन्दको पी-पीकर सतत मत्त होता रहा। श्रीमानसजीके अतिरिक्त उनके मुखसे कवितावली, हनुमान­बाहुक, बृहद्बरवै­रामायण, लघु­बरवै­रामायण, जानकी­मङ्गल, पार्वती­मङ्गल, दोहावली, वैराग्य­संदीपनी, तुलसी­दोहा­शतक, हनुमान­चालीसा, गीतावली­रामायण, श्रीकृष्णगीतावली, विनय­पत्रिका तथा तुलसी­सतसई जैसे अनुपमेय काव्यरत्न भी प्रस्तुत हुए। इस प्रकार १२६ वर्ष पर्यन्त वैदिक साहित्योद्यानका यह मनोहर माली संवत् सोलह सौ अस्सी श्रावण शुक्ल तृतीया शनिवारको वाराणसीके असी घाटपर अन्तिम बार बोला –

रामचन्द्र गुन बरनि के भयो चहत अब मौन।
तुलसी के मुख दीजिए बेगहि तुलसी सौन॥

भावुक भक्तोंने जब बाबाजीके लम्बे आध्यात्मिक जीवनके अनुभव­सार­सर्वस्वके परिप्रेक्ष्यमें अपनी इति­कर्तव्यताकी जिज्ञासा की तब श्रीचित्रकूटी बाबा गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी बोले –

अलप अवधि तामें जीव बहु सोच पोच
करिबे को बहुत है कहा कहा कीजिए।
ग्रन्थन को अन्त नाहिं काव्य की कला अनन्त
राग है रसीलो रस कहाँ कहाँ पीजिए।
बेदन को पार न पुरानन को भेद बहु
बानी है अनेक चित कहाँ कहाँ दीजिए।
लाखन में एक बात तुलसी बताए जात
जन्म जो सुधारा चाहो रामनाम लीजिए।

बस मौन हो गया श्रीरामकथाका अन्तिम उद्गाता –

संबत सोरह सै असी असी गंगके तीर।
श्रावण शुक्ला तीज शनि तुलसी तज्यौ शरीर॥

वस्तुतः हुलसीहर्षवर्धन कलिपावनावतार श्रीरामकथाके अनुपम एवं अन्तिम उद्गाता, सांस्कृतिक क्रान्तिके सफल पुरोधा, कविकुलपरमगुरु, अभिनव­वाल्मीकि गोस्वामी श्रीतुलसीदासजीके जीवनवृत्तका वर्णन मुझ जैसे जीवके लिये उतना ही दुष्कर है जितना सामान्य पिपीलिकाके लिये निरवधि महासागरकी थाह लगाना। मैंने गोस्वामीजीकी ही कृपासे अपने अन्तःकरणमें भासित उन पूज्यचरणोंकी जीवनकथा जाह्नवीमें मात्र अपनी वाणीको ही स्नान करानेका प्रयास किया है।

तुलसी वै ह तुलसी सुरभिः सुरभिसमा।
तुलसीदाससदृशस्तुलसीदास एव हि॥