पद १२६


॥ १२६ ॥
मदनमोहन सूरदास की नाम सृंखला जुरि अटल॥
गान काब्य गुन रासि सुहृद सहचरि अवतारी।
राधाकृष्ण उपास्य रहसि सुख के अधिकारी॥
नव रस मुख्य सिँगार बिबिध भाँतिन करि गायो।
बदन उचारत बेर सहस पाँयनि ह्वै धायो॥
अँगीकार की अवधि यह ज्यों आख्या भ्राता जमल।
मदनमोहन सूरदास की नाम सृंखला जुरि अटल॥

मूलार्थश्रीसूरदास मदनमोहनजीके नामकी शृङ्खला अटल होकर एक-साथ जुड़ गई थी अर्थात् श्रीसूरदासजीके नामके साथ श्रीमदनमोहनजीका नाम भी एक साथ-जुड़ गया था। वे गान, काव्य और गुणोंकी राशि थे अर्थात् गान, काव्य और गुणोंमें अत्यन्त निपुण थे। वे अत्यन्त सुहृद् थे। सूरदासजी और मदनमोहनजी श्रीराधा­कृष्णकी सखीके अवतार थे। उनके उपास्य राधा­कृष्णजी थे और वे रहस्य सुखके अधिकारी थे। नवरसोंमें मुख्य शृङ्गार­रसको मानते हुए उन्होंने बहुत प्रकारसे उसका गान किया। जब वे उच्चारण करते थे, तो वह शृङ्गार­रसका गीत अनेक प्रकारसे होकर सारे संसारमें व्याप्त हो जाता था। भगवान्‌ने उनकी भक्ति अङ्गीकार की, और इस प्रकार उनकी भक्तिकी सीमा स्वीकारी। जैसे दोनों अश्विनीकुमार सतत परस्पर भ्रातृत्वका निर्वाह करते रहे, जैसे श्रीराम-लक्ष्मण सतत एक-साथ ही रहा करते थे, उसी प्रकारसे सूरदासजी और मदनमोहनजीके नामकी शृङ्खला एक-साथ जुड़ी। जहाँ सूरदास वहाँ मदनमोहन, जैसे जहाँ राम वहाँ लक्ष्मण। जैसे दोनों अश्विनीकुमार एक-साथ, उसी प्रकार मदनमोहन और सूरदास एक-साथ। ये दोनों कभी अलग नहीं हुए।