पद १०९


॥ १०९ ॥
दिवदासबंस यशोधर सदन भई भक्ति अनपायिनी॥
सुत कलत्र संमत सबै गोबिंद परायन।
सेवत हरि हरिदास द्रवत मुख राम रसायन॥
सीतापति को सुजस प्रथम ही गमन बखान्यो।
द्वै सुत दीजै मोहि कबित्त सब ही जग जान्यो॥
गिरागदित लीला मधुर संतनि आनँददायिनी।
दिवदास बंस यशोधर सदन भई भक्ति अनपायिनी॥

मूलार्थ – दिवदासके वंशमें महाराज यशोधरजीके भवनमें अनपायिनी भक्तिका आविर्भाव हुआ। उनके पुत्र और स्त्री सम्मत होकर सभी लोग भगवान् गोविन्दके परायण बन गए थे। महाराज यशोधरजीके परिवारके सभी लोग श्रीहरि और श्रीहरिदासोंकी सेवा करते थे। सभीके मुखसे राम­रसायनका प्रवाह चलता रहता था। सीतापति को सुजस अर्थात् वे भगवान् श्रीरामके मङ्गलमय सुयशको गाते थे। उनमेंसे विश्वामित्रके साथ जब भगवान् श्रीराम-लक्ष्मण पधार रहे थे, उस प्रथम गमनको उन्होंने काव्यबद्ध किया। विश्वामित्रने जब राजा दशरथसे कहा – “हे राजन्! दो पुत्र मुझे दे दीजिये,” वही कविता महाराज यशोधरजीने सुनाई और उन्हें इतना आवेश आया कि वे विश्वामित्रजीके साथ जानेके लिये कहने लगे। भगवान्‌ने कहा– “आप रुकिये, मैं विश्वामित्रका यज्ञ कराके आ रहा हूँ, फिर आपको दर्शन दूँगा,” पर वे नहीं माने और भगवदावेशमें ही उनका शरीर छूट गया। यशोधरजी दिव्य वाणीमें भगवान्‌की लीलाओंका गान करते थे। उनकी वाणी संतोंको आनन्द देती थी और दिवदासके वंशमें यशोधरके भवनमें अनपायिनी भक्ति प्रकट हो गई थी।