पद ०९६


॥ ९६ ॥
भवप्रबाह निसतार हित अवलंबन ये जन भए॥
सोझा सीवँ अधार धीर हरिनाभ त्रिलोचन।
आसाधर द्यौराज नीर सधना दुखमोचन॥
कासीश्वर अवधूत कृष्ण किंकर कटहरिया।
सोभू उदाराम नामडुंगर व्रत धरिया॥
पदम पदारथ रामदास बिमलानँद अमृत स्रए।
भवप्रबाह निस्तार हित अवलंबन ये जन भए॥

मूलार्थ – संसार­सागरके प्रवाहसे पार होनेके लिये ये भक्त, अर्थात् जिनकी मैं चर्चा करने जा रहा हूँ, वे अवलम्बन हो गए। इनमें (१) श्रीसोझाजी (२) श्रीसीवाँजी (३) श्रीआधारजी (४) श्रीधीरजी (५) श्रीहरिनाभजी (६) श्रीत्रिलोचनजी (७) श्रीआशाधरजी (८) श्रीदेवराजजी (९) श्रीनीरजी और (१०) श्रीसदना कसाईजी – ये दुःखके मोचन अर्थात् दुःखको नष्ट करनेवाले हुए। (११) श्रीकाशीश्वर अवधूतजी (१२) श्रीकृष्ण­किंकरजी (१३) श्रीकटहरियाजी (१४) श्रीस्वभूराम­देवाचार्यजी (१५) श्रीउदारामजी (१६) श्रीरामनामका व्रत धारण करने वाले श्रीडुंगरजी (१७) श्रीपद्मजी (१८) श्रीपदारथजी (१९) श्रीरामदासजी और (२०) श्रीविमलानन्दजी – इन्होंने अमृतका श्रयण किया अर्थात् जीवनमें भजनानन्द रूप अमृतको प्राप्त कर लिया।

सोझाजी अत्यन्त भावुक भक्त थे। एक बार इनके मनमें उत्कट वैराग्य हुआ। ये घर छोड़कर जाने लगे। इनकी पत्नीने कहा – “मैं भी चलूँगी।” इन्होंने कहा – “ठीक है, तुम भी चलो, पर सब कुछ छोड़कर चलना पड़ेगा।” उन्होंने मान लिया। सोझाजीने अपनी पत्नीको देखा तो एक नन्हा-सा शिशु भी गोदमें लिये थीं। केवल परीक्षा लेनेके लिये, कर्तव्यसे पलायनके लिये नहीं, सोझाजीने कहा – “तब इसे भी तुम छोड़ दो।” उसने छोड़ दिया। दोनों चल पड़े। भगवान्‌‌का भजन करने लगे। बारह वर्षोंके पश्चात् एक बार सोझाजीकी पत्नीको स्मरण आया कि जिस बालकको मैंने छोड़ा था, उसका क्या हुआ होगा? वहीं आए जहाँ उस बालकको छोड़ा था। वहाँ देखा, तो बहुत बड़ा साम्राज्य बन गया था। वहाँके मालीसे पूछा कि राज्य किसका है? मालीने बताया कि सोझाजीने जिस बालकको छोड़ा था, उस बालकको एक राजा ले आए थे। उनके पास संतान नहीं थी, उसीको उन्होंने राजा बना दिया, और आज उसीका साम्राज्य यहाँपर है। भगवद्विश्वासका कितना बड़ा फल होता है। तात्पर्य यह है कि जब व्यक्ति भगवद्भजनमें अपने कर्तव्यको छोड़ता है तब भगवान् उसका स्वयं निर्वहण कर लेते हैं। हाँ, जो नाटकीय रूपसे अपने कर्तव्यका त्याग करता है, उसका निर्वहण भगवान् नहीं करते।

श्रीसदन कसाईजी – इनका व्यवसाय कसाईका था। ये मांस बेचा करते थे, पर इनके मनमें भगवान्‌के प्रति बहुत प्रेम था। एक बार इनके घरमें एक बटखरा था, ये नहीं जानते थे कि शालग्राम हैं। बटखरेसे मांस तोला करते थे। संयोगसे एक संतने देख लिया और कहा – “अरे सदन! ये तो शालग्राम हैं, इनसे मांस तोल रहे हो? तुम मुझे दे दो।” इन्होंने दे दिया। उन्होंने सुन्दर स्नान कराकर अपनी सेवामें रखा। इधर इनका मन बहुत व्याकुल होने लगा। तब भगवान्‌ने संतसे कहा – “तुम शीघ्र ही सदनके यहाँ मुझे पहुँचा दो। वह मुझे बटखरा बनाकर मांस तोलता है, मुझे बहुत अच्छा लगता है। मैं उसकी प्रीतिके वशमें हो गया हूँ।” संतने वही किया।

एक बार सदनजी श्रीजगन्नाथ­यात्राको जा रहे थे। वे एक स्थानपर पहुँचे। वे बड़े सुन्दर थे। उन्हें देखकर एक युवती मोहित हो गई। उसने इनसे प्रणयकी प्रार्थना की। सदनजीने कहा – “आप मेरी माँ हैं।” जब वह समझ गई कि ये नहीं मानेंगे तो तो सोचने लगी कि क्या करूँ। आवेशमें आकर उसने अपने पतिकी हत्या कर दी और सदनसे बोली – “देखो! मैं अपने पतिकी हत्या करके आ गई हूँ, अब तो मुझे स्वीकार लो।” फिर भी इन्होंने उसे नहीं स्वीकारा, तब उसने जाकर शोर मचाया। वह चिल्लाई कि इस व्यक्तिने मेरे पतिको मार डाला है। महाराजके पास न्याय करनेके लिये लाया गया, तो सदनके दोनों हाथ उन्होंने कटवा दिये। सदनजीको कोई अन्तर नहीं पड़ा, ये तो भगवद्भजन करते हुए जा ही रहे थे। भगवान्‌ने देखा कि सदनजी आ रहे हैं, तो पालकी भेजकर उन्हें मँगवाया। और जब वे प्रणाम करने लगे, तो सदनजीको दोनों हाथ आ गए। इस प्रकार धन्य थे सदन कसाई!