पद ०९५


॥ ९५ ॥
रसिकमुरारि उदार अति मत्त गजहिं उपदेसु दियौ॥
तन मन धन परिवार सहित सेवत संतन कहँ।
दिब्य भोग आरती अधिक हरिहू ते हिय महँ॥
श्रीबृन्दाबनचंद्र श्याम श्यामा रँग भीनो।
मग्न प्रेमपीयूष पयधि परचै बहु दीनो॥
हरिप्रिय श्यामानंदवर भजन भूमि उद्धार कियौ॥
रसिकमुरारि उदार अति मत्त गजहिं उपदेसु दियौ॥

मूलार्थश्रीरसिक­मुरारिजी अत्यन्त उदार थे। उन्होंने मतवाले हाथीको भी वैष्णव­सिद्धान्तका उपदेश देकर उसे शान्त किया। वे तन, मन, धन और परिवारके सहित सदैव संतोंकी सेवा करते थे। वे संतोंके लिये दिव्य भोग और आरती प्रस्तुत करते थे। संत उनके हृदयमें श्रीहरिसे भी अधिक सम्माननीय थे। श्रीवृन्दावन­चन्द्र भगवान् श्रीकृष्ण­चन्द्र और भगवती राधाजीकी शोभाके रङ्गसे उनका मन भीगा हुआ रहता था। वे प्रेमपीयूष पयधि अर्थात् प्रेमामृतके पयोधि अर्थात् सागरमें मग्न रहते थे। अपने भजनका बार-बार उन्होंने सामान्य लोगोंको परिचय भी दिया था। श्रीभगवान्‌को प्रिय अपने गुरुदेव श्यामानन्दकी भजनभूमिका उन्होंने उद्धार किया था।

एक बार श्यामानन्दजीने रसिक­मुरारिजीको बुलाया कि “तुम जैसे हो, वैसे चले आओ।” उस समय वे भोजन कर रहे थे, और भोजन करते-करते ही चले आए, मुख भी नहीं धोया। श्रीश्यामानन्दजीने देखा और कहा – “अरे! तुमने आचमन भी नहीं किया?” रसिक­मुरारिजीने कहा – “आपने कहा था न, जैसी स्थितिमें हो, उसी स्थितिमें आ जाओ। मैं उसी स्थितिमें आ गया।” श्यामानन्दजी बहुत प्रसन्न हुए, उन्होंने कहा कि “जहाँ मैं भजन करता था, उस भूमिको वहाँके नवाबने अधिकृत कर लिया है, उसे छुड़ाना होगा।” रसिक­मुरारिजी वहाँ पधारे। सेवकोंने कहा – “यह बहुत दुष्ट है, आप यहाँ न रहें, चले जाएँ।” रसिक­मुरारिजीने कहा – “देखता हूँ, क्या होता है?” रसिक­मुरारिजी नवाबके यहाँ आ रहे थे। उसके द्वारपर एक खूनी मतवाला हाथी था, जो पागल हो चुका था, सभी आनेवालोंको मार डालता था। परन्तु रसिक­मुरारिजीका यह भजन­बल कि रसिक­मुरारिजीको देखकर उसका आवेश समाप्त हो गया। हाथी शान्त हो गया। उसने आकर रसिक­मुरारिजीको प्रणाम किया, और उन्हें सूंडसे उठाकर अपनी पीठपर बिठाकर नाचने लगा। रसिक­मुरारिजीने उस मत्तगजेन्द्रको भगवन्नामका उपदेश दिया और कहा – “आजसे कभी भी किसीको मत सताना।” रसिक­मुरारिजीने उसका नाम गोपालदास रखा। नवाब बहुत प्रसन्न हुआ और उसने अधिकृत भूमि दे दी। रसिक­मुरारिजी जब भी भण्डारा करते तो वह गोपालदास आता था, आनन्द करता था और संतोंका झूठन पाता था। एक बार एक तथाकथित संतने उसे तालाबमें बुलाया। गोपालदास तालाबमें प्रवेश कर गया और वहाँसे निकल नहीं पाया, उसने वहीं अपना शरीर छोड़ दिया।