पद ०९३


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(श्री)रूपसनातन भक्तिजल श्रीजीव गुसाईं सर गँभीर॥
बेला भजन सुपक्व कषाय न कबहूँ लागी।
बृंदाबन दृढ़ बास जुगल चरननि अनुरागी॥
पोथी लेखन पान अघट अच्छर चित दीनो।
सद्ग्रन्थन को सार सबै हस्तामल कीनो॥
संदेह ग्रन्थि छेदन समर्थ रस रास उपासक परम धीर।
(श्री)रूपसनातन भक्तिजल श्रीजीव गुसाईं सर गँभीर॥

मूलार्थ – श्रीरूप­गोस्वामीजी और श्रीसनातन­गोस्वामीजीका जो भक्ति रूप जल है, उसको स्थल देनेके लिये, संभालनेके लिये, इकट्ठा करनेके लिये, संजोनेके लिये श्रीजीव­गोस्वामीजी गम्भीर तालाबके समान हुए। वे भजन­महा­सागरकी ऐसी परिपक्व सुन्दर बेला अर्थात् किनारे बन गए, तट बन गए, जिनमें कभी कषाय अर्थात् काई नहीं लगी, अर्थात् मलिनता नहीं व्याप्त हुई। श्रीवृन्दावनमें उन्होंने दृढ़ वास किया। युगलचरणोंमें उनका दृढ़ अनुराग था, वे युगलचरणोंके अनुरागी थे। पुस्तक लिखनेमें श्रीजीव­गोस्वामीजी इतने निपुण थे कि पान अघट अच्छर अर्थात् प्रत्येक पृष्ठपर समान ही अक्षर लिखते थे, समान अक्षरके लेखनमें उन्होंने चित्त दिया था। उन्होंने श्रेष्ठ सद्ग्रन्थोंके सभी सारतत्त्वोंको हस्तामलकवत् कर लिया था अर्थात् पूरा समझ लिया था। वे संदेहकी ग्रन्थियोंके छेदनमें अर्थात् उन्हें नष्ट करनेमें अत्यन्त समर्थ थे, रसरासके उपासक थे और परमधीर थे। श्रीरूप­गोस्वामीजी और श्रीसनातन­गोस्वामीजीके भक्ति रूप जलके लिये श्रीजीव­गोस्वामी गम्भीर सरोवर बन गए थे।