पद ०७७


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हरिब्यास तेज हरिभजन बल देवी को दीच्छा दई॥
खेचरि नर की सिष्य निपट अचरज यह आवै।
बिदित बात संसार संत मुख कीरति गावै॥
बैरागिन के बृंद रहत सँग स्याम सनेही।
नव योगेश्वर मध्य मनहुँ सोभित बैदेही॥
श्रीभट्ट चरन रज परस तें सकल सृष्टि जाको नई।
हरिब्यास तेज हरिभजन बल देवी को दीच्छा दई॥

मूलार्थश्रीहरिव्यास­देवाचार्यजीने भगवान्‌के दिये हुए तेज और भगवान्‌के भजनके बलसे देवीको भी दीक्षा दी। आकाशचारिणी देवी मनुष्यकी शिष्या बन गईं – यह सुनकर मनमें एक आश्चर्य आता है। पर यह बात संसारमें विदित है, संत लोग अपने मुखसे इस कीर्तिको गाते हैं कि एक बार हरिव्यास­देवजी जब आए हुए संतोंको भोजन करा रहे थे, तो एक घटना घटी। वहाँ भगवान् नैवेद्य कर ही नहीं पाते थे। वहाँ एक देवी रहती थीं, वे ही सब भोजन कर लेती थीं। यह समाचार हरिव्यास­देवाचार्यजीको मिला और उन्होंने कहा – “आप ऐसा अपराध क्यों कर रही हैं? देखा जाए तो आप माया हैं, भगवान् आपके पति हैं। तो क्या पत्नी पतिको अपना जूठन खिलाती है?” भगवतीजीने कह दिया – “तो फिर क्या करूँ? आप जो आज्ञा करें।” हरिव्यास­देवाचार्यजीने कहा – “आप नैवेद्य मत कीजिये, पहले भगवान्‌को नैवेद्य लेने दीजिये, फिर प्रसाद ले लीजियेगा।” भगवतीजीने वही किया और श्रीहरिव्यास­देवाचार्यजीसे श्रीराधा­कृष्णका युगलमन्त्र प्राप्त किया। यहाँ यह ध्यान देना चाहिये कि श्रीसीता­राममन्त्रकी भाँति ही श्रीराधा­कृष्णका मन्त्र भी द्वादशाक्षर है, जिसे उन्होंने प्राप्त किया। आकाशचारिणी देवी मनुष्यकी शिष्या बन गईं, इसमें कोई आश्चर्य नहीं करना चाहिये। यह बात संसारमें विदित है। संत अपने मुखसे इसकी कीर्ति गाते हैं। श्यामस्नेही वैरागी संतोंके बीच हरिव्यास­देवाचार्यजी सदैव उसी प्रकार सुशोभित रहते हैं जैसे नौ योगेश्वरोंके मध्यमें बैदेही अर्थात् महाराज निमि विराजमान रहते हैं। उसी प्रकार श्यामस्नेही वैरागी संतोंके मध्य भगवान् हरिव्यास­देवाचार्यजी विराजमान रहते हैं। श्रीभट्टजीकी चरणधूलिका स्पर्श करनेके कारण हरिव्यास­देवाचार्यजीके चरणोंमें संपूर्ण सृष्टिने आकर प्रणाम किया था, और हरिव्यास­देवाचार्यजी भगवत्प्रदत्त अपने तेज और भगवत्प्रदत्त अपने भजनके बल द्वारा इतने ओजस्वी हो गए थे कि उन्होंने देवीको भी दीक्षा दी थी।