पद ०६६


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महासती सत ऊपमा त्यों सत सुरसरि को रह्यो॥
अति उदार दंपती त्यागि गृह बन को गवने।
अचरज भयो तहँ एक संत सुन जिन हो बिमने॥
बैठे हुते एकांत आय असुरनि दुख दीयो।
सुमिरे सारँगपानि रूप नरहरि को कीयो॥
सुरसुरानंद की घरनि को सत राख्यो नरसिंह जह्यो।
महासती सत ऊपमा त्यों सत सुरसरि को रह्यो॥

मूलार्थसुरसुरीजी सत्त्वगुणमें महान् सतियों जैसी अर्थात् सीता, सावित्री और अनसूया जैसी थीं। उनका पतिव्रत महान् सतियोंके समान था। इसलिये जैसे महासतियोंका पतिव्रत सुरक्षित था, उसी प्रकार सुरसुरीजीका भी पातिव्रत्य सत् रहा, अर्थात् उनके पतिव्रतकी रक्षा हुई। एक बार अत्यन्त उदार दम्पती सुरसरानन्दजी और सुरसुरीजी घरको त्यागकर वनको चल पड़े। वनमें जाकर वे भजन करने लगे। वहाँ एक आश्चर्य हो गया, जिसे सुनकर संत दुःखी न हों। सुरसुरानन्दजी और सुरसुरीजी एकान्तमें बैठे हुए थे। उसी समय कुछ म्लेच्छ आ गए और उन्होंने दम्पतीको दुःख देनेकी चेष्टा की। जब सुरसुरानन्दजी समिधा लेनेके लिये चले गए, तो उन्होंने आकर सुरसुरीजीका हरण करना चाहा। तब तक सुरसुरानन्दजी भी वहाँ पहुँच गए थे, पर असुरोंके सामने वे क्या कर सकते थे? उन्होंने भगवान् शार्ङ्गपाणि श्रीरामजीका स्मरण किया। भगवान् आ गए। उन्होंने नरसिंहका रूप धारण किया और सब म्लेच्छोंको मारकर नरसिंह भगवान्‌ने सुरसुरानन्दजीकी गृहिणी सुरसुरीजीके सतीत्वकी रक्षा कर ली।