पद ०६२


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धन्य धना के भजन को बिनहि बीज अंकुर भयो॥
घर आये हरिदास तिनहिं गोधूम खवाए।
तात मात डर खेत थोथ लांगलहिं चलाए॥
आस पास कृषिकार खेत की करत बड़ाई।
भक्त भजे की रीति प्रगट परतीति जु पाई॥
अचरज मानत जगत में कहुँ निपज्यो कहुँ वै बयो।
धन्य धना के भजन को बिनहि बीज अंकुर भयो॥

मूलार्थधनाजीके भजनको धन्यवाद। धन्य है धनाजीका भजन, जिसके प्रतापसे बीजके बिना भी अङ्कुर जम गया। धनाजी भगवान्‌के अत्यन्त भक्त थे, वे उदार थे। एक बार संतलोग उनके घरमें पधारे। धनाजी खेतमें बोनेके लिये गेहूँके बीज ले जा रहे थे, पर संत जब आए, तो उन्होंने उन सबका आटा बनाकर पूड़ियाँ बनाईं और संतोंको खिला दीं। माता-पिताके डरसे खेतमें थोथ लांगलहिं अर्थात् झूठा हल चला दिया और कह दिया कि बीज बो दिया। परन्तु भजनका क्या प्रभाव – यद्यपि बोया नहीं था, फिर भी खेतमें बिना बीजके ही गेहूँ जम गया। आस-पासके कृषिकार अर्थात् किसान कृषिकी बड़ाई कर रहे थे – “अरे! इतना सुन्दर गेहूँ!” ऐसा अद्भुत आनन्द। भक्त भजे की रीति प्रगट परतीति जु पाई अर्थात् लोगोंने भक्तके भजनकी रीति और विश्वासको प्रत्यक्ष प्राप्त कर लिया अर्थात् देख लिया। सब लोग आश्चर्य करने लगे – “अरे! बोया कहीं और जमा कहीं!” अन्तमें भगवान्‌ने कहा – “तुमने बहुत अद्भुत सेवा की है, मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। परन्तु मेरी एक इच्छाका पालन करो। अभी तुमने गुरु नहीं बनाया है। और बिना गुरुके भक्ति परिपक्व नहीं होती है। जाओ जगद्गुरु आद्य रामानन्दाचार्यजीकी शरणागति स्वीकारो, सब समाधान हो जाएगा।” और धनाजीने जगद्गुरु आद्य रामानन्दाचार्यजीकी शिष्यता स्वीकारी। धनाजी धन्य हो गए।