पद ०५३


॥ ५३ ॥
भक्तन सँग भगवान नित ज्यों गउ बछ गोहन फिरैं॥
निहिकिंचन इक दास तासु के हरिजन आये।
बिदित बटोही रूप भये हरि आप लुटाये॥
साखि देन को स्याम खुरदहा प्रभुहि पधारे।
रामदास के सदन राय रनछोर सिधारे॥
आयुध छत तन अनुग के बलि बंधन अपबपु धरैं।
भक्तन सँग भगवान नित ज्यों गउ बछ गोहन फिरैं॥

मूलार्थ – भक्तोंके साथ भगवान्‌ उसी प्रकार सदैव फिरा करते हैं, रहा करते हैं, चला करते हैं, जैसे गऊ बछड़ेके साथ चला करती है। यहाँ गोहन शब्दका अर्थ है समीप, निकट, पास। जैसे – (१) निहिकिंचन इक दास – यहाँ भक्तमालके टीकाकार प्रियादासजी अपनी टीकामें इन दासका नाम हरिपाल बताते हैं (भ.र.बो. २३५)। एक हरिपाल नामके भक्त थे। उन्हें भक्तोंकी सेवा बहुत प्रिय थी। जब तक घरमें धन था तब तक तो उन्होंने बड़े उत्साहसे संतोंकी सेवा की। जब कुछ नहीं रह गया तब उन्होंने लोगोंसे ऋण लिया। जब लोग ऋण देनेमें भी कतराने लगे तब उन्होंने चोरीका अवलम्ब लिया, अर्थात् वे उनके घरोंमें चोरी करने लगे जो भगवान्‌का भजन नहीं करते था। जो भगवद्भक्त होता था, उसके यहाँ वे चोरी नहीं करते थे। एक बार वे एक भगवद्भक्तके यहाँ चोरी करने गए। उन्होंने देखा, ये तो भगवान्‌का भजन करता है, तो वे अपनी चादर भी वहाँ छोड़ आए। संयोगसे एक दिन उन निष्किञ्चन दास हरिपालजीके यहाँ संत­मण्डली पधार गई। संतोंकी सेवाके लिये उनके पास कुछ भी नहीं था। उन्होंने घरमें अपनी पत्नीसे बात की – “कैसे समाधान किया जाए?” तब उन्होंने एक उपाय सोचा – “चलो आज कोई आएगा तो उसे लूट लेंगे, संतोंकी सेवा हो जाएगी।” हरिपालजीकी निष्ठा देखकर भगवान्‌ स्वयं रुक्मिणीके संग एक सुन्दर बटोहीके रूपमें आ गए। आभूषणोंसे सजे हुए भगवान्‌को देखकर हरिपालजी बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा – “ये दम्पती आ गए हैं, सजे-धजे हैं, और इनके पास बहुत-से स्वर्णके अलंकार हैं – इन्हें लूटा जाए और इससे संत­सेवा की जाए।” वही हुआ। भगवान्‌ने और रुक्मिणीजीने प्रेमसे लुटवाया। उन्होंने सब कुछ तो ले लिया। अब एक रुक्मिणीजीके हाथमें अंगूठी बची। वह थोड़ी उँगलीमें कसती थी, और उसे निकालनेमें जटिलता हो रही थी। हरिपालजीने निकालना प्रारम्भ किया और रुक्मिणीजीकी उँगली मरोड़ी। रुक्मिणीजीने कहा – “तुम बहुत कठोर हो।” हरिपालजीने कहा – “कठोरता क्या! इसमें नग जड़ा है, यदि अंगूठी मुझे मिल जाएगी तो बहुत दिनों तक संतोंकी सेवा होती रहेगी।” हरिपालजीकी संतनिष्ठा देखकर रुक्मिणीजी और द्वारकाधीश भगवान्‌ प्रकट हुए और उन्होंने हरिपालजीकी जय-जयकार की।

(२) इसी प्रकार एक युवक ब्राह्मण एक वृद्ध ब्राह्मणकी बहुत सेवा किया करता था। दोनों, वृद्ध ब्राह्मण और युवक ब्राह्मण, तीर्थयात्राको निकले। वृद्ध ब्राह्मणने कहा – “युवक! तुम इतनी सेवा कर रहे हो, मैं तुमसे अपनी कन्याका विवाह कर दूँगा।” युवक ब्राह्मण कुछ भी नहीं बोला। वृद्ध ब्राह्मणने कहा – “इसके साक्षी भगवान्‌ हैं।” युवकने कहा – “ठीक है।” तीर्थयात्रा संपन्न हो गई। जब युवक ब्राह्मण वृद्ध ब्राह्मणके घर विवाहके विषयमें बात करने आया तो वृद्ध ब्राह्मणने विवाह करनेसे आना-कानी कर दी। युवक ब्राह्मण पंचायत बुलानेके लिये आया। पंचोंने कहा – “कोई इसका साक्षी हो, तब हम लोग इनसे कुछ कहें।” युवक ब्राह्मणने कहा – “हमारे-इनके बीचमें तो स्वयं गोपालजी साक्षी हैं और कोई नहीं।” पंचोंने कहा – “तो ठीक है तब, उनको बुलाकर ले आना, वो साक्षी दे देंगे, तब तुम्हारे साथ इस ब्राह्मणकी कन्याका विवाह हो जाएगा।” युवक ब्राह्मणने स्वीकार कर लिया और गोपालजीके पास आकर भगवान्‌से प्रार्थना की। गोपालजी प्रकट हुए। उन्होंने कहा – “चलो, मैं साक्षी दूँगा। मैं तुम्हारे पीछे चलूँगा। मेरे चलनेकी नूपुरकी धुन सुनाई पड़ती रहेगी। यदि तुमने पीछे मुड़कर देखा तो मैं वहीं रुक जाऊँगा।” “ठीक है,” कहते हुए युवक ब्राह्मण भगवान्‌को ले चला। और जब वह अपने गाँवके निकट आया तब उसने सोचा – “एक बार तो भगवान्‌को देख लूँ, कि कैसे भगवान्‌ चल रहे हैं?” जब उसने भगवान्‌पर दृष्टि डाली तो भगवान्‌ वहीं रुक गए। उस गाँवका नाम था खुरदहा। आज भी वह ग्राम उड़ीसामें है, और वहाँ भगवान् साक्षी गोपालका मन्दिर है। भगवान्‌ने कहा – “अब यहीं पंचोंको बुला लो। मैं यहीं साक्षी दे दूँगा।” उसने पंचोंको बुला लिया। भगवान्‌ने साक्षी दी – “हाँ, मेरे सामने ब्राह्मणने इस युवकको अपनी कन्या देनेकी बात कही थी, अब भले अस्वीकार कर रहा है।” सब पंचोंने निर्णय ले लिया और वृद्ध ब्राह्मणको उस युवकसे अपनी कन्याका विवाह करना पड़ा।

(३) श्रीरामदासजीके घरमें तो भगवान्‌ स्वयं आए। श्रीरामदासजी महाराज अत्यन्त भगवद्भक्त थे। उनको बुढ़ाना भी कहा करते हैं। वे सतत एकादशीके दिन द्वारकाधीशके मन्दिर जाया करते थे और जागरण करते थे। जब तक वे युवक थे, जब तक उनका शरीर चला, तब तक उन्होंने यह नियम निभाया। वृद्धावस्थामें जब उनका शरीर चलना बंद हो गया अर्थात् शिथिल हो गया, तब भगवान्‌ने कहा – “रामदासजी! अब आप मत आया करिये, अपने घरमें ही जागरण कर लिया करिये।” रामदासजीने कहा – “आपको देखे बिना मुझे संतोष नहीं होता। आपके दर्शन तो करूँगा ही करूँगा।” भगवान्‌ने भावुकतामें कह दिया – “ठीक है, तब मैं ही आपके घर चला चलूँगा।” “कैसे चलेंगे भगवन्?” उन्होंने कहा – “आप एक गाड़ी लाइयेगा, और मैं चलूँगा।” “ठीक है भगवन्, ऐसा ही होगा।” अगली एकादशीके दिन रामदासजी एक बैलगाड़ी ले आए, और मन्दिरके पिछले भागसे भगवान्‌को उठाकर उन्होंने गाड़ीपर बैठा लिया। चल पड़े। इधर पुजारियोंने मन्दिरमें देखा तो मूर्ति ही नहीं थी। लोगोंने पीछा किया और रामदासजीको पकड़ लिया। उनकी बहुत पिटाई की। अनेक अस्त्र-शस्त्रोंसे मारते रहे। उनके सारे प्रहारोंको भगवान्‌ने अपने शरीरपर ले लिया। भगवान्‌को उन्होंने तालाबमें पधरा दिया। इधर पुजारी आए, उन्हें भगवान्‌ नहीं प्राप्त हुए। पुजारी बहुत दुःखी हो गए, और उन्होंने आमरण अनशन कर लिया। भगवान्‌ने कहा – “तुम्हारा व्यवहार इतना निकृष्ट है कि हम वहाँ रहना नहीं चाहते। तुमने भक्त रामदासको मार लगाई तो सारी मार मैंने सह ली। अब तो एक ही विकल्प है। तुमको हम दूसरी मूर्ति बता देते हैं, उसको ले आओ। हमें छोड़ दो।” पुजारियोंने जब नहीं माना, तब भगवान्‌ने कहा – “ठीक है तब। मेरी मूर्तिके बराबर सोना ले लेना।” पुजारी मान गए। रामदासने कहा – “मेरे पास तो कुछ सोना ही नहीं है।” भगवान्‌ने कहा – “तुम्हारी पत्नीके पास कानकी बाली है न।” “जी।” “बस, उतना ही भारी मैं रहूँगा।” आए। भगवान्‌ने इतना छोटा शरीर बना दिया कि रामदासजीकी पत्नी गंगाबाईकी बालीसे भी भगवान्‌ कम भारी हो गए, बालीसे भी हल्के हो गए, और पंडोंको बाली दे दी। पंडे देखते रहे कि सेवा हम कहाँसे करेंगे? जब भगवान्‌ ही नहीं होंगे तो सेवा-पूजाके बिना हमको धन कौन देगा? तो भगवान्‌ने एक दूसरी मूर्ति दे दी, और कहा – “इनको ले जाइये। मैं तो अब नहीं जाऊँगा।” इस प्रकार भगवान्‌ने भक्तकी वाणीकी रक्षा की, भक्तके मनोरथकी रक्षा की। जो स्वयं विराट् रूपमें बलिको बाँध सकते हैं आज वही प्रभु इतने हल्के हो गए कि छोटी-सी बाली उनसे भारी हो गई। इसीलिये नाभाजीने कहा कि बलि बंधन अपबपु धरैं, बलिको बाँधने वाले भगवान्‌ने अपबपु अर्थात् छोटा शरीर धारण कर लिया।

अब नाभाजी आगे कहते हैं –