पद ०५०


॥ ५० ॥
प्रसाद अवग्या जानि कै पानि तज्यो एकै नृपति॥
हौं का कहौं बनाइ बात सबही जग जाने।
करते दौना भयो स्याम सौरभ सुख माने॥
छपन भोगतें पहिल खीच करमा की भावे।
सिलपिल्ले के कहत कुँअरि पै हरि चलि आवे॥
भक्तन हित सुत विष दियो भूपनारि प्रभु राखि पति।
प्रसाद अवग्या जानि कै पानि तज्यो एकै नृपति॥

मूलार्थ – प्रसादका अपमान जानकर एक राजाने अपना हाथ ही काट डाला। मैं क्या बात बनाकर कहूँ? यह बात सभी लोग जानते हैं कि जब पुरीके महाराज गजपति चौसर खेल रहे थे, उसी समय पुजारीजी प्रसाद लेकर आए। महाराजने बाएँ हाथसे प्रसाद लेना चाहा। “मैं बाएँ हाथमें आपको प्रसाद नहीं दे सकता,” ऐसा कहकर पुजारीजी चले गए। तुरन्त महाराजके मनमें आया – “अरे! मुझसे पाप हुआ है। बाएँ हाथसे मैंने प्रसाद लेना चाहा है अर्थात् दाहिने हाथको काटना ही पड़ेगा।” सबसे उन्होंने हाथ काटनेके लिये कहा। मन्त्रियोंने और किसीने उनकी बात नहीं मानी। तब उन्होंने एक बात बनाई – “खिड़कीके पास एक प्रेत आता है। जब उसका हाथ देखना तब तुम लोग तलवारसे उसे काट देना।” यह कहकर अंधेरी रातमें महाराजने अपना दाहिना हाथ वहाँ खिड़कीके बाहर कर दिया और मन्त्रीने प्रेत जानकर उस हाथको काट दिया। देखा गया तो महाराज थे। महाराजने कहा – “यह तो प्रेत ही था न। इसीने तो प्रसादका अपमान किया था।” अन्तमें वह कटा हुआ हाथ दौना नामका पुष्प बना, जिसकी सुगन्धि भगवान्‌को आज भी बहुत प्रिय है। जब प्रातःकाल जगन्नाथजीके दर्शनको गजपति महाराज पधारे और उन्होंने भगवान्‌को प्रणाम किया तो उनको फिर उनका हाथ मिल गया।

इसी प्रकार कर्माबाई, जो भगवान्‌की अनन्य भक्त थीं, उन्होंने गोपालजीको अपना पुत्र ही मान लिया था। और क्या वात्सल्य! कर्माबाईकी खिचड़ी भगवान् स्वयं पाते थे। कर्माबाई जगन्नाथ­पुरीमें आईं और उन्होंने बिना नहाए खिचड़ी बनाई। भगवान्‌को नैवेद्य अर्पित कर दिया। भगवान् छप्पन भोगसे पहले खिचड़ी खानेके लिये कर्माबाईकी कुटीमें आ गए। पंडोंने देखा कि जब छप्पन भोग लगा तो भगवान्‌के मुखमें खिचड़ीका कण लगा था। गजपतिने पूछा – “प्रभो! यह खिचड़ी कहाँसे आपको मिल गई?” भगवान्‌ने बता दिया कि कर्माबाईने मुझे खिचड़ी खिलाई थी। एक बार एक पण्डितने कर्माबाईसे कहा कि बिना नहाए खिचड़ी मत बनाया करो। उन्होंने दूसरे दिन नहाकर खिचड़ी बनाई। फिर तो भगवान्‌ने आकर उस पण्डितका गला पकड़ लिया और कहा – “तुमने मेरी माँको उपदेश क्यों दिया? उनकी बिना नहाए बनाई हुई खिचड़ी मुझे बहुत भाती है। क्योंकि मैं तो प्रेमका भूखा हूँ।” धन्य हैं कर्माबाई, जिनकी खिचड़ीसे भगवान्‌का पेट भरा। वास्तवमें तीनों युगोंमें तीन महिलाओेंने भगवान्‌का पेट भरा, भगवान्‌को आकण्ठ भोजन कराया। त्रेतामें शबरी माँने बेर खिलाकर भगवान्‌को प्रसन्न किया, द्वापरमें विदुरपत्नी सुलभाने बथुएका साग खिलाकर भगवान्‌को प्रसन्न किया और कलियुगमें कर्माबाईने खिचड़ी खिलाकर भगवान्‌को प्रसन्न किया।

एक जमींदार­कन्या अत्यन्त भगवत्प्रेमी थीं। एक संतसे उन्होंने अपनी सेवाके लिये ठाकुरजीको माँगा। संतने एक पत्थर­शिलाका टुकड़ा दे दिया और कहा इनका नाम सिलपिल्ले है। तुम इन्हें सिलपिल्ले कहना। वे सेवा करने लगीं। जब विवाह करके आईं तो सिलपिल्ले भगवान्‌की सेवामें इतनी मग्न रहतीं थीं कि उनके पतिने सोचा कि भगवान्‌को फेंक दिया जाए, तब यह मुझसे प्रेम करेगी। उसने भगवान्‌को कुएँमें फेंक दिया और फेंकनेके पश्चात् जब पत्नीने अन्न-जल छोड़ दिया तब पति और सासुने कहा – “ठीक है, यदि तुम्हारे बुलानेपर भगवान् आ जाएँगे तो तुम उनकी सेवा करना।” उन्होंने सिलपिल्ले भगवान्‌को आर्तस्वरसे बुलाया। कुएँमें गिरे हुए सिलपिल्ले भगवान् उछलकर उनकी गोदीमें आ गए।

एक रानी अत्यन्त भगवद्भक्ता थीं। उनके पति संतसेवा और भगवत्सेवामें विश्वास नहीं करते थे। रानीने अपने पुत्रको विष दे दिया। बालक मर गया। तब रानीने कहा कि आज यहाँ संत आए हुए हैं पड़ोसमें, उनका यदि चरणोदक मिल जाए तो बालक जीवित हो उठेगा। तो भगवान्‌ने महारानीका सम्मान रख लिया और संतके चरणोदकसे बालक जीवित हो उठा। रानीके पति भी संतसेवा और भगवत्सेवामें विश्वास करने लगे। इस प्रकार भगवान् अपने भक्तोंके विरुदके लिये क्या-क्या नहीं करते?