पद ०१४


॥ १४ ॥
पदपराग करुना करौ जे नेता नवधा भक्ति के॥
श्रवन परीच्छित सुमति व्याससावक कीरंतन।
सुठि सुमिरन प्रहलाद पृथु पूजा कमला चरननि मन॥
बंदन सुफलक सुबन दास दीपत्ति कपीश्वर।
सख्यत्वे पारथ समर्पन आतम बलिधर॥
उपजीवी इन नाम के एते त्राता अगतिके।
पदपराग करुना करौ जे नेता नवधा भक्ति के॥

मूलार्थ – नाभाजी कहते हैं कि नवधा भक्तिके जो नेता रहे हैं, आदर्श रहे हैं, वे नवों महाभागवत अपने चरणकमलके परागके द्वारा मुझपर करुणा करें। ये हैं – (१) श्रवणमें सुन्दर बुद्धि वाले महाराज परीक्षित् (२)  भगवान्‌के कीर्तनमें सुन्दर बुद्धि वाले व्याससावक अर्थात् व्यासपुत्र श्रीशुकाचार्यजी महाराज (३) भगवान्‌के सुन्दर स्मरणमें श्रीप्रह्लाद (४) भगवान्‌के श्रीचरणकमलके सेवनमें कमला अर्थात् श्रीलक्ष्मीजी (५) भगवान्‌के पूजनमें श्रीपृथुजी (६)  भगवान्‌के वन्दनमें श्वफल्कके पुत्र श्रीअक्रूरजी (७) भगवान्‌के दास्यभावकी दीप्तिमें अर्थात् प्रकाशमें श्रीहनुमान्‌जी महाराज (८) भगवान्‌के सख्यत्व अर्थात् सख्यभक्तिमें पृथापुत्र श्रीअर्जुन (और उनके चारों भ्राता युधिष्ठिरजी, भीमजी, नकुलजी और सहदेवजी भी) और (९) भगवान्‌के आत्मनिवेदनमें दैत्यराज श्रीबलि – इन नामोंके उपजीवी अर्थात् श्रीपरीक्षित्, श्रीशुकाचार्य, श्रीप्रह्लाद, भगवती लक्ष्मी, श्रीपृथु, श्रीअक्रूर, श्रीहनुमान्‌जी, श्रीअर्जुन और श्रीबलि – ये उनके रक्षक हैं जिनकी कोई गति नहीं है अथवा कार अर्थात् भगवान् वासुदेव ही जिनकी गति हैं – उनकी भी ये रक्षा करते रहते हैं। अथवा मैं नाभा इन नवों महाभक्तोंके नामोंका उपजीवी हूँ, अर्थात् इन्हींसे मेरी जीविका चल रही है, और ये मुझ गतिहीनके रक्षक हैं। इनके लिये एक श्लोक है –

श्रीकृष्णश्रवणे परीक्षिदभवद्वैयासकिः कीर्तने
प्रह्लादः स्मरणे तदङ्घ्रिभजने लक्ष्मीः पृथुः पूजने।
अक्रूरस्त्वथ वन्दने च हनुमान्दास्येऽथ सख्येऽर्जुनः
सर्वस्वात्मनिवेदने बलिरभूत्कृष्णाप्तिरेषां फलम्॥

अब नाभाजी उन महाभागवतोंकी चर्चा कर रहे हैं जो भगवान्‌की प्रसन्नताका आनन्द जानते हैं, और जो भगवान्‌के प्रसाद अर्थात् उपभुक्त प्रसादके स्वादका आनन्द भी जानते हैं। प्रसाद शब्द प्रसन्नता और नैवेद्यग्रहण – इन दोनों अर्थोंमें प्रसिद्ध है।