पद ००५


॥ ५ ॥ चौबीस रूप लीला रुचिर (श्री)अग्रदास उर पद धरौ॥ जय जय मीन बराह कमठ नरहरि बलि बावन। परशुराम रघुबीर कृष्ण कीरति जगपावन॥ बुद्ध कलक्की ब्यास पृथू हरि हँस मन्वंतर। जग्य ऋषभ हयग्रीव ध्रुव बरदेन धन्वन्तर॥ बदरीपति दत कपिलदेव सनकादिक करुणा करौ। चौबीस रूप लीला रुचिर (श्री)अग्रदास उर पद धरौ॥

मूलार्थ – चूँकि भगवान् भक्तोंके लिये ही अवतार लेते हैं और भगवान्‌का यह संकेत भी है कि जो भक्त उनका भजन करते हैं, उनकी भगवान् चौबीसों घण्टे रक्षा करते हैं। अतः भक्तोंके आनन्दके लिये भगवान्‌ने यह निर्णय लिया कि मैं भक्तोंके मनमें विश्वास दिलानेके लिये चौबीस घण्टोंके क्रमसे चौबीस अवतार लूँगा। इसीलिये भगवान्‌के मुख्य चौबीस अवतार, जो भागवतजीके द्वितीय स्कन्धके सप्तम अध्यायमें वर्णित हैं, की यहाँ नाभाजी चर्चा कर रहे हैं। मीन अर्थात् मत्स्य, कमठ अर्थात् कच्छप, नरहरि अर्थात् नरसिंह

हे मत्स्यावतार भगवान्! आपकी जय हो!! हे वराहावतार भगवान्! आपकी जय हो!! हे कच्छपावतार प्रभु! आपकी जय हो!! हे नरसिंह भगवान्! आपकी जय हो!! हे बलिके लिये वामन रूपमें उपस्थित अवतीर्ण वामन भगवान्! आपकी जय हो!! हे परशुराम भगवान्! आपकी जय हो!! हे रघुबीर अर्थात् रघुकुलमें वीर भगवान् श्रीराम! आपकी जय हो!! हे जगत्‌को पवित्र करनेवाली कीर्तिसे युक्त श्रीकृष्ण भगवान्! आपकी जय हो!! हे कीकट प्रदेशमें अजनको पिता मानकर जन्मे हुए बुद्ध भगवान्! आपकी जय हो!! हे सम्भल ग्राममें जन्म लेनेवाले युगान्तावतार कल्कि भगवान्! आपकी जय हो!! हे वेदव्यास भगवान्! आपकी जय हो!! हे पृथु भगवान्! आपकी जय हो!! हे गजेन्द्रको बचानेवाले हरि अवतार भगवान्! आपकी जय हो! हे सनकादिकोंके प्रश्नोंका उत्तर देनेके लिये हंस रूपमें अवतीर्ण हंसावतार भगवान्! आपकी जय हो!! हे चौदह मन्वन्तराधिपतियोंके रूपमें प्रकट हुए मन्वन्तरावतार भगवान्! आपकी जय हो!! हे यज्ञनारायण भगवान्! आपकी जय हो!! हे ऋषभदेव भगवान्! आपकी जय हो!! हे हयग्रीव भगवान्! आपकी जय हो!! हे ध्रुवको वर देनेवाले सहस्र सिरोंसे युक्त सहस्रशीर्षावतार भगवान्! आपकी जय हो!! हे धन्वन्तरि भगवान्! आपकी जय हो!! हे बदरीपति अर्थात् बदरीनारायण भगवान्! आपकी जय हो!! हे दत्तात्रेय भगवान्! आपकी जय हो!! हे कपिलदेव भगवान्! आपकी जय हो!! हे सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार सनकादि भगवान्! आपकी जय हो!! इस प्रकार सुन्दर लीलाओंको करनेके लिये चौबीस रूप धारण किये हुए प्रभु! आप अग्रदास गुरुदेवजीके सहित मुझ नारायणदासके हृदयमें अपना श्रीचरण पधरा दें।

भगवान्‌के चौबीस अवतार भक्तोंके आनन्दके लिये ही तो हुए हैं। वे सभी पूर्ण हैं, वे सभी अनादि हैं, वे सभी अनन्त हैं, वे सभी नित्य हैं। उनमें न कभी हानि होती है, न उनमें कभी उपादान होता है। वे शाश्वत हैं, इसलिये कहा जाता है – सर्वे देहाः शाश्वताश्च नित्यस्य परमात्मनः

(१) चाक्षुष मन्वन्तरका जब प्रलय उपस्थित हुआ था, तब राजर्षि सत्यव्रतके समक्ष भगवान्‌ने मत्स्यावतार धारण किया था और उन्हींकी सींगमें पृथ्वीको, जो नाव बनकर उपस्थित हुई थी, सत्यव्रतने बाँध दिया था, तथा उसीपर संपूर्ण बीजोंके सहित सत्यव्रत स्वयं आरूढ हुए थे और तब तक भगवान्‌ने उस नावको डूबनेसे बचाया जब तक प्रलयकी लीला चली। उसी समय निद्रावशीभूत ब्रह्माजीके मुखसे चारों वेद स्खलित हो गए थे। उन्हें शङ्खासुरने चुरा लिया था,[1] और मत्स्यावतार भगवान्‌ने शङ्खासुरका वध करके चारों वेद फिर ब्रह्माजीको प्रत्यावर्तित किये थे। अतः भागवतकार भागवतजीके अष्टमस्कन्धके अन्तमें यह कहते हैं –

प्रलयपयसि धातुः सुप्तशक्तेर्मुखेभ्यः श्रुतिगणमपनीतं प्रत्युपादत्त हत्वा। दितिजमकथयद्यो ब्रह्म सत्यव्रतानां तमहमखिलहेतुं जिह्ममीनं नतोऽस्मि॥

(भा.पु. ८.२४.६१)

मत्स्यावतार भगवान्‌की जय हो!!

(२) श्वेतवाराह कल्पके प्रारम्भमें जब हिरण्याक्षने ब्रह्माजीके द्वारा सद्योरचित पृथ्वीको चुरा लिया था और अपने शरीरके दक्षिण भागसे प्रकट हुए मनुको जब ब्रह्माजीने यज्ञ करने और प्रजाकी उत्पत्ति करनेके लिये आदेश किया था, तब मनुने अपना यह धर्मसंकट बताया – “पृथ्वी तो है ही नहीं, फिर आपकी आज्ञाका पालन मैं कैसे करूँ?” उस समय ब्रह्माजी चिन्तित हुए और उनकी नासिकाके दक्षिण छिद्रसे छोटे-से शूकरके बच्चेके रूपमें भगवान् वराहका प्राकट्य हुआ –

इत्यभिध्यायतो नासाविवरात्सहसानघ। वराहतोको निरगादङ्गुष्ठपरिमाणकः॥

(भा.पु. ३.१३.१८)

क्षणभरमें सबके देखते-देखते भगवान्‌का शरीर बढ़ा और वे विशालकाय होकर सबको दर्शन देने लगे। अपने घर्घरा शब्दसे, घुरघुराहटसे चिन्तित हुए ब्रह्माजी और उनके मानस­पुत्रोंके खेदको नष्ट करते हुए भगवान् शूकर समुद्रमें कूद पड़े, और जलगर्भमें जाकर शयन कर रही पृथ्वीको भगवान्‌ने अपने दाँतके अग्रभागमें स्थापित किया। लेकर ऊपर आ रहे थे, वहीं हिरण्याक्षने भगवान्‌का प्रतिरोध किया, और वराह भगवान्‌ने योगबलसे पृथ्वीको स्थापित करके तुमुल युद्ध करके हिरण्याक्षका वध किया। वराह भगवान्‌की जय!!

(३) समुद्रके मन्थनके समय जब गरुड द्वारा लाया गया मन्दराचल पर्वत पातालमें धँसने लगा, तब उसे संभालनेके लिये भगवान्‌ने अनन्तयोजनायत कच्छपावतार धारण किया। कच्छप भगवान्‌ने अपनी पीठपर मन्दराचलको स्थापित कर लिया, और तब तक उसे अपनी पीठपर रखा जब तक समुद्र­मन्थनकी लीला चली। कच्छप भगवान्‌की जय!!

(४) हिरण्यकशिपुके अत्याचारसे जब समस्त जीवजात भयभीत हो गया और हिरण्यकशिपुने ब्रह्माजीसे यह वरदान माँग लिया कि भूतेभ्यस्त्त्वद्विसृष्टेभ्यो मृत्युर्मा भून्मम प्रभो (भा.पु. ७.३.३५) अर्थात् आपके द्वारा रचे हुए किसी प्राणीसे मेरी मृत्यु न हो, तब भगवान्‌ने प्रह्लादकी भक्तिसे प्रभावित होकर लोहेके खंभेके मध्यसे उसे फाड़कर नरसिंहावतार स्वीकारा –

सत्यं विधातुं निजभृत्यभाषितं व्याप्तिं च भूतेष्वखिलेषु चात्मनः। अदृश्यतात्यद्भुतरूपमुद्वहन् स्तम्भे सभायां न मृगं न मानुषम्॥

(भा.पु. ७.८.१८)

अर्थात् अपने भक्तके वचनको सत्य करनेके लिये, अपनी व्याप्तिको संपूर्ण जीवोंमें प्रमाणित करनेके लिये, स्तम्भके मध्यसे अत्यन्त अद्भुतरूप धारण करते हुए भगवान् प्रकट हो रहे हैं जो पूर्णरूपसे न तो सिंह हैं न मनुष्य, अर्थात् अधःकायसे भगवान् मनुष्य हैं और ऊर्ध्वकायसे सिंह। इन्हीं नरसिंह भगवान्‌ने हिरण्यकशिपुके वक्षःस्थलको विदीर्ण किया। श्रीनरसिंह भगवान्‌की जय!!

(५) जब बलिजीने निन्यानवे अश्वमेध यज्ञ कर लिये, उनका सौवाँ अश्वमेध यज्ञ प्रारम्भ हुआ। यदि वह पूर्ण हो जाता तो बलि इन्द्र हो जाते। अदितिने इस व्यवहारसे दुःखी होकर पयोव्रतके माध्यमसे भगवान्‌को संतुष्ट कर लिया। फिर भाद्रपद शुक्ल द्वादशीको अभिजित् मुहूर्त अर्थात् मध्याह्नमें भगवान् शङ्ख, चक्र, गदा और पद्मके साथ अदितिके समक्ष प्रकट हुए, परन्तु अदिति-कश्यपकी प्रार्थनासे उन्होंने छोटे-से वामन बटुका रूप धारण कर लिया। उपवीत संस्कारके अनन्तर अग्निका परिसमूहन करके, दिव्य पादुका धारण करते हुए, दण्ड एवं कमण्डलु लिये हुए, वाजपेय छत्रको स्वीकार करते हुए भगवान् बलिकी यज्ञशाला भृगुकच्छमें पधारे।

श्रुत्वाश्वमेधैर्यजमानमूर्जितं बलिं भृगूणामुपकल्पितैस्ततः। जगाम तत्राखिलसारसम्भृतो भारेण गां सन्नमयन्पदे पदे॥

(भा.पु. ८.१८.२०)

अर्थात् अपने श्रीचरणोंके भारसे पृथ्वीको पग-पगपर झुकाते हुए, संपूर्ण तत्त्वोंसे मण्डित भगवान् वामन बलिको अश्वमेधोंके कारण ऊर्जित सुनकर उनकी यज्ञशालामें पधारे। भगवान् वामनको देखकर बलिने नमन किया और कुछ माँगनेकी प्रार्थना की। भगवान्‌ने बलिसे कहा – “मैं तुमसे केवल तीन पद भूमि माँग रहा हूँ, वह भी मैं अपने चरणोंसे नापूँगा,” –

तस्मात्त्वत्तो महीमीषद्वृणेऽहं वरदर्षभात्। पदानि त्रीणि दैत्येन्द्र सम्मितानि पदा मम॥

(भा.पु. ८.१९.१६)

बलिने संकल्प ले लिया और भगवान्‌ने विराट् रूप धारण करके प्रथम पदसे संपूर्ण नीचेके लोकोंको, और द्वितीय पदसे ऊर्ध्वके लोकोंको नाप लिया। उसी द्वितीय पदके अङ्गुष्ठको धोकर ब्रह्माजीने गङ्गाजीको प्रकट कर लिया। तृतीय पदके लिये कुछ भी भूभाग अवशिष्ट न रहा। अनन्तर, दान न देनेके अपराधमें भगवान्‌ने बलिको गरुड द्वारा वारुणपाशमें बँधवाया और उन्हें पाताल भेज दिया। वामन भगवान्‌की जय!!

(६) जब हैहयवंशमें प्रसूत सहस्रबाहु आवश्यकतासे अधिक उद्धत हो गया और उसने ब्राह्मणोंके प्रति विद्रोह करनेकी ठानी, तब महर्षि जमदग्निके संकल्पसे रेणुकाके गर्भसे वैशाख शुक्ल तृतीयाको भगवान् परशुरामजीका प्राकट्य हुआ और उन्होंने इक्कीस बार ब्राह्मणद्रोही क्षत्रियोंका संहार किया, संपूर्ण पृथ्वी कश्यपको दे दी, और अन्ततोगत्वा अपनेमें उपस्थित नारायणकी समस्त कलाओंको भगवान् श्रीरामके चरणोंमें सौंप दिया। अवतारका कार्य पूर्ण हुआ। परशुराम भगवान्‌की जय!!

(७) जब रावणके अत्याचारसे संपूर्ण पृथ्वी देवताओं, मुनियों, और सिद्धों सहित व्याकुल हो गई, तब देवताओंकी प्रार्थनापर परिपूर्णतम परात्पर परब्रह्म परमात्मा साकेतविहारी श्रीरामजीने रामरूपमें अवतार प्रस्तुत किया। ये अवतार भी हैं और अवतारी भी हैं। और इन्हीं भगवान् श्रीरामके चरित्रको महर्षि वाल्मीकिने सौ करोड़ रामायणोंमें गाया। अन्य महर्षियोंने भी श्रीरामकथा लिखी, रामायण लिखी। मर्यादा­मानदण्डको स्थापित करके भगवान् श्रीरामने अन्तमें एक ही बात कही –

भूयो भूयो भाविनो भूमिपाला नत्वा नत्वा याचते रामचन्द्रः। सामान्योऽयं धर्मसेतुर्नृपाणां स्वे स्वे काले पालनीयो भवद्भिः॥

(स्क.पु.ब्र.ख.ध.मा. ३४.४०)

अर्थात् हे मेरे पश्चात् होनेवाले राजाओं! मैं रामचन्द्र आपको बार-बार प्रणाम करके यह याचना कर रहा हूँ कि सामान्योऽयं धर्मसेतुर्नृपाणां स्वे स्वे काले पालनीयो भवद्भिः अर्थात् मेरे द्वारा मनुष्योंके लिये जो सामान्य धर्मसेतु बनाया गया है, उसका आप लोगोंके द्वारा समय-समयपर रक्षण होना ही चाहिये। ऐसे मर्यादा­पुरुषोत्तम परिपूर्णतम परब्रह्म परमात्मा परमेश्वर भगवान् श्रीरामकी जय!!

(८) कंसके अत्याचारसे पृथ्वी और देवताओंको भयभीत देखकर साधुओंकी रक्षा करनेके लिये, दुष्टोंका नाश करनेके लिये, और धर्मकी स्थापना करनेके लिये भगवान् देवकी-वसुदेवके यहाँ प्रकट हुए। भगवान्‌ने दिव्य बाल­लीलाएँ की, पूतनासे लेकर विदूरथ पर्यन्त दुर्दान्त असुरोंका संहार किया, अर्जुनको कुरुक्षेत्रमें गीता सुनाई, और अनन्तर अपने परिवारको ही राष्ट्रद्रोही व उद्दण्ड देखकर अपने ही शस्त्रोंसे उपसंहृत कर स्वयं प्रभुने अपनी ऐहलौकिक लीलाका संवरण कर लिया। श्रीकृष्ण भगवान्‌की जय!!

(९) युगसन्ध्यामें राजाओंके दस्युप्राय हो जानेपर हिंसाकी बहुलताको देखकर कीकट प्रदेशमें अजन नामक क्षत्रियके यहाँ भगवान् बुद्धका अवतार हुआ। वही बुद्ध भगवान् अन्ततोगत्वा उड़ीसामें जगन्नाथके रूपमें प्रसिद्ध हुए। जगन्नाथ बुद्ध भगवान्‌की जय!!

(१०) इस कलिकालके अन्तमें सम्भल ग्राममें कल्किके रूपमें भगवान्‌का आविर्भाव होगा, जो शङ्करजीसे शस्त्रविद्या प्राप्त करके, सूर्यनारायणसे दिव्य घोड़ा प्राप्त करके, असुरोंका संहार कर पुनः कृतयुगकी प्रतिष्ठापना करेंगे। कल्कि भगवान्‌की जय!!

(११) द्वापरके तृतीय भागमें पराशर महर्षिके मानसिक संकल्पसे सत्यवतीके गर्भसे भगवान् वेदव्यासका आविर्भाव हुआ, जिन्होंने वेदको ऋक्, यजुष्, साम, और अथर्व– इन चार भागोंमें विभक्त किया, अठारह पुराणोंकी रचना की और महाभारत जैसे विशालकाय लक्ष­श्लोकात्मक ग्रन्थकी रचना की। वेदव्यास भगवान्‌की जय!!

(१२) ध्रुवके ही वंशमें अङ्गके पौत्रके रूपमें नास्तिक वेनकी दक्षिण भुजाको मथनेपर भगवान् पृथुका आविर्भाव हुआ। इन्हीं पृथुने अपने सौवें अश्वमेध यज्ञमें इन्द्रको ही हवनकुण्डमें गिरनेके लिये विवश कर दिया, और भगवान्‌के अनुरोध करनेपर कह दिया – “मुझे संतोंके मुखसे कथा सुनते समय दो कानोंमें दस हजार कानोंकी शक्ति दे दी जाए।” अनन्तर सनकादिके उपदेशसे उन्होंने अपनी लौकिक लीलाका संवरण कर लिया। भगवान् पृथुदेवकी जय!!

(१३) ग्राहके द्वारा ग्रसे जानेपर गजेन्द्रने जब पुकार लगाई तब हरिमेधा महर्षिके आश्रममें रहनेवाली मृगीको ही माँ बनाकर उसीके गर्भसे प्रभुका हरि अवतार हुआ, और भगवान्‌ने दौड़कर सुदर्शनचक्रसे ग्राहका मुख फाड़कर गजेन्द्रकी रक्षा कर ली। गजेन्द्ररक्षक हरि भगवान्‌की जय!!

(१४) सनकादिके द्वारा पूछे हुए प्रश्नोंका उत्तर जब ब्रह्माजी नहीं दे सके तब सनकादिके प्रश्नोंका उत्तर देनेके लिये ही ब्रह्मसभामें भगवान्‌का हंसके रूपमें अवतार हुआ, और सनकादिके प्रश्नोंका उत्तर देकर भगवान्‌ने उन्हें संतुष्ट किया। हंसावतार भगवान्‌की जय!!

(१५) चौदह मन्वन्तरोंके अधिपतिके रूपमें भगवान्‌का मन्वन्तरावतार होता है, भगवान् चौदह रूपोंमें देखे जाते हैं और उनके द्वारा वैदिक धर्मकी रक्षा होती है। वर्तमानमें सप्तम मनुके कार्यकालमें हम लोग रह रहे हैं, जिन्हें हम वैवस्वत मनु कहते हैं। मन्वन्तरावतार भगवान्‌की जय!!

(१६) स्वायम्भुव मनुकी प्रथम पुत्री आकूति, जिनका विवाह रुचिके साथ हुआ था, उनके गर्भसे यज्ञनारायणका आविर्भाव हुआ। उनको मनुने दत्तक पुत्रके रूपमें स्वीकार कर ले लिया था और उन्होंने अपने सुयम नामक[2] पुत्रोंके साथ मनुकी रक्षा की और इन्द्र बनकर यज्ञका विस्तार किया। यज्ञनारायण भगवान्‌की जय!!

(१७) प्रियव्रतके प्रपौत्रके रूपमें महाराज नाभिकी धर्मपत्नी मेरुदेवीमें भगवान् ऋषभदेवका आविर्भाव हुआ। इन्द्रने उनसे अपनी जयन्ती नामक कन्याका विवाह किया। सौ पुत्रोंको जन्म देकर भगवान् ऋषभदेवने परमहंस­पद्धतिका जनताके समक्ष प्रस्ताव किया और अन्ततोगत्वा उसी अवधारणाके फलस्वरूप उन्होंने अपने अवतारको समेट लिया। ऋषभदेव भगवान्‌की जय!!

(१८) ब्रह्माजीके यज्ञमें जब मधु-कैटभ दानवोंने वेदको चुरा लिया था तब भगवान् हयग्रीवके रूपमें अवतीर्ण हुए, और उन्होंने मधु-कैटभको मारकर पुनः वेद भगवान्‌को ब्रह्माजीके लिये उपस्थित कर दिया। हयग्रीव भगवान्‌की जय!!

(१९) मनुजीके पौत्र ध्रुवजीको वर देनेके लिये भगवान्‌का सहस्रशीर्षावतार हुआ –

त एवमुत्सन्नभया उरुक्रमे कृतावनामाः प्रययुस्त्रिविष्टपम्। सहस्रशीर्षापि ततो गरुत्मता मधोर्वनं भृत्यदिदृक्षया गतः॥

(भा.पु. ४.९.१)

उन्हीं सहस्रशीर्षा भगवान्‌ने अपने एक सहस्र मुखोंसे ध्रुवको चूमा, दुलारा और अन्तमें उन्हें सर्वोच्च ध्रुवपद दे दिया। श्रीसहस्रशीर्षा भगवान्‌की जय!!

(२०) भगवान्‌ने अमृतमन्थनके समय ही आयुर्वेदके प्रवर्तक धन्वन्तरिके रूपमें अवतार लिया, आयुर्वेदका आविष्कार किया और पुनः भगवान् काशिराजके यहाँ भी पुत्रके रूपमें धन्वन्तरिके रूपमें अवतीर्ण हुए। वह अवतार तिथि है कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी, जिसे भाषामें धनतेरस भी कहते हैं। धन्वन्तरि भगवान्‌की जय!!

(२१) मनुजीकी तृतीय पुत्री प्रसूतिकी तेरहवीं पुत्री मूर्ति, जिनका विवाह धर्मके साथ हुआ था, उनके गर्भसे भगवान् नर-नारायणके रूपमें प्रकट हुए। अर्थात् नर-नारायणने धर्मको पिता और मूर्तिको माता माना। गन्धमादन पर्वतपर भगवान् उपस्थित हुए। उन्होंने ही सहस्रकवच नामक राक्षसका संहार किया और उर्वशीको अर्पित कर इन्द्रका मद चूर्ण कर दिया। आज भी बदरीक्षेत्रमें विराज कर अपने दर्शनसे वे सतत प्रत्येक व्यक्तिके एक जन्मके पापोंको नष्ट करते रहते हैं। वही हैं इस भारतवर्षके प्रधान देवता। नर-नारायण भगवान्‌की जय!!

(२२) मनुजीकी द्वितीय पुत्री देवहूतिजीकी भी द्वितीय पुत्री अनसूयाजीके यहाँ भगवान् दत्तात्रेयके रूपमें प्रकट हुए। भगवान्‌ने अत्रि-अनसूयाको कह दिया कि क्योंकि मैंने अपनेको ही आपको दे दिया है, इसलिये मेरा नाम अब दत्त होगा। इन्हीं दत्तात्रेय भगवान्‌के चरण­कमलकी धूलिका सेवन करके यदु, हैहय आदियोंने योगसिद्धि प्राप्त की। उनके लोक और परलोक दोनों बन गए। दत्तात्रेय भगवान्‌ने गुरु­परम्पराका पूर्णरूपसे प्रवर्तन किया। आज भी गिरनार अर्थात् रैवतक पर्वतपर दत्तात्रेय भगवान्‌की पादुकाएँ विराजमान हैं। दत्तात्रेय भगवान्‌की जय!!

(२३) मनुजीकी द्वितीय पुत्री देवहूति, जिनका विवाह महर्षि कर्दमके साथ हुआ था, उनके गर्भसे दशम सन्तानके रूपमें कपिलदेव भगवान्‌का प्राकट्य हुआ –

तस्यां बहुतिथे काले भगवान्मधुसूदनः। कार्दमं वीर्यमापन्नो जज्ञेऽग्निरिव दारुणि॥

(भा.पु. ३.२४.६)

कपिलदेवने अपनी माँको ब्रह्मविद्याका उपदेश दिया, जिसे कपिलाष्टाध्यायी कहते हैं। माताजीको आध्यात्मिक उपदेश देकर स्वयं प्रभु गङ्गासागरको पधार गए, जिसके लिये आज भी यह सूक्ति प्रचलित है – सौ तीरथ बार-बार गङ्गासागर एक बार। ऐसे कपिलदेव भगवान्‌की जय!!

(२४) ब्रह्माजीकी प्रथम मानसी सृष्टिके रूपमें सनक, सनातन, सनन्दन, और सनत्कुमारका प्राकट्य हुआ। ये साक्षात् भगवान् ही हैं, जिनके लिये गोस्वामीजी उत्तरकाण्डमें कहते हैं –

जानि समय सनकादिक आए। तेज पुंज गुन शील सुहाए॥ ब्रह्मानंद सदा लयलीना। देखत बालक बहुकालीना॥ रूप धरे जनु चारिउ बेदा। समदरशी मुनि बिगत बिभेदा॥ आशा बसन ब्यसन यह तिनहीं। रघुपति चरित होइ तहँ सुनहीं॥ तहाँ रहे सनकादि भवानी। जहँ घटसंभव मुनिवर ग्यानी॥

(मा. ७.३२.३-७)

श्रीसनकादि भगवान्‌की जय!!

इस प्रकार दिव्य-दिव्य लीलाएँ करके भगवान् भक्तोंका सतत अनुरञ्जन करते रहते हैं। चौबीस अवतार धारण करने वाले भगवान्‌की जय!!

[1] भागवतके अष्टम स्कन्धके अनुसार वेदोंको चुराने वाले असुरका नाम हयग्रीव था (देखें भा.पु. ८.२४.८, ८.२४.९ और ८.२४.५७)। स्कन्दपुराण (देखें स्क.पु. २.४.१३.२४, २.४.१३.३०, २.३.१३.३३ और २.४.१३.३८) और गर्गसंहिता (देखें ग.सं. २.१.२०, २.१.२३, २.१.२५, २.१.२८) आदि ग्रन्थोंके अनुसार असुरका नाम शङ्खासुर था।

[2] भागवतके द्वितीय स्कन्धके सप्तम अध्यायके अनुसार यज्ञनारायण के पुत्रोंको सुयम कहा जाता है, यथा जातो रुचेरजनयत्सुयमान् सुयज्ञ आकूतिसूनुरमरानथ दक्षिणायाम् (भा.पु. २.७.२)। अन्यत्र यज्ञनारायणके पुत्रोंको तुषित और याम भी कहा गया है (देखें भा.पु. १.३.१२, भा.पु. ४-१-८, वि.पु. १.७.२१)।