पद ००२


॥ २ ॥ मंगल आदि बिचारि रह बस्तु न और अनूप। हरिजन के जस गावते हरिजन मंगलरूप॥

मूलार्थ – श्रीनाभाजी कहते हैं कि श्रीहरि भगवान्‌के भक्तोंके यशको गाते समय जब आदिमङ्गलका विचार किया गया तो यह निष्कर्ष निकला कि भगवान्‌के भक्तोंकी अपेक्षा और कोई दूसरी वस्तु अनुपम अर्थात् उत्कृष्ट है ही नहीं। अर्थात् भगवान्‌के भक्त ही स्वयं अनुपम हैं, उनका यशोगान अनुपम है। इसलिये भगवद्भक्तोंके यशोगानके प्रारम्भमें किसी और मङ्गलकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि भगवान्‌के भक्त स्वयं मङ्गलस्वरूप हैं।