पद ००१


भक्तान् भक्तिं रामभद्राचार्यो नत्वा हरिं गुरून्। श्रीभक्तमाले कुरुते टीकां मूलार्थबोधिनीम्॥ जयति जगदघालं भग्नभक्ताधिजालं हरिजनगुणमालं जुष्टराजत्तमालम्। विभुविरुदविशालं प्रेमपीयूषपालं हरिहृदयरसालं भास्वरं भक्तमालम्॥ प्रभू गौरश्यामौ विजितरतिकामौ तनुरुचा विभू आत्मारामौ त्रिभुवनललामौ गुणनिधी। जनारामौ रामौ प्रथितपरिणामौ सुखकरौ स्तुवे सीतारामौ जनदृगभिरामौ गिरिधरः॥

॥ १ ॥ भक्त भक्ति भगवंत गुरु चतुर नाम बपु एक। इनके पद बंदन किए नासहिं बिघ्न अनेक॥

मूलार्थ – भक्त अर्थात् भगवान्‌के श्रीचरणारविन्दके अनुरागी भजकवृन्द, भगवान्‌की परमप्रेमा रूपिणी भक्ति, स्वयं षडैश्वर्यसंपन्न श्रीराम­श्रीकृष्ण­श्रीनारायणान्यतम भगवान्, और उनके तत्त्वका उपदेश करनेवाले श्रीगुरुदेव – ये चारों नाम और स्वरूपसे चार-चार दिखते हैं अर्थात् इनके पृथक्-पृथक् चार नाम हैं और पृथक्-पृथक् चार शरीर भी हैं। परन्तु वस्तुतः ये एक ही हैं, अर्थात् एक-दूसरेसे अभिन्न हैं, और एक परमेश्वर ही चार रूपोंमें हमें दिख रहे हैं। इनके श्रीचरणोंका वन्दन करनेसे अनेक विघ्न नष्ट हो जाते हैं। इसलिये मैं नारायणदास नाभा इन चारोंके श्रीचरणकमलोंका वन्दन कर रहा हूँ।