पद २०४


॥ २०४ ॥
भक्त जिते भूलोक में कथे कौन पै जाय।
समुँदपान श्रद्धा करै कहँ चिरि पेट समाय॥

मूलार्थ – संसारमें जितने भक्त हैं, वे किसके द्वारा कहे जा सकते हैं? मान लो छोटी-सी चिड़िया समुद्रके पानकी अभिलाषा करे तो क्या यह सम्भव है? क्या समुद्र छोटी-सी चिड़ियाके पेटमें समा सकता है? अर्थात् नहीं।

यहाँ नाभाजीने श्रद्धा शब्दका अर्थ अभिलाषासे लिया है। जो टीकाकारोंने श्रद्धा शब्दकी दूसरी व्याख्या की है, वो उनकी भूल है। यहाँ श्रद्धा शब्द अभिलाषाका ही वाचक है। श्रद्धाऽऽदरे च काङ्क्षायाम् (मे.को.धा.व. १९), श्रद्धा संप्रत्ययः स्पृहा (अ.को. ३.३.१०२), श्रद्धाऽभिलाषे चास्तिक्ये, श्रद्धा शब्दका अर्थ अभिलाषा भी है और आस्तिकता भी है, इसीलिये कणेमनसे श्रद्धाप्रतीघाते (पा.सू. १.४.६६) – यहाँ पाणिनिजीने भी श्रद्धाका अर्थ अभिलाषा ही किया है।