॥ २०१ ॥
हरि सुजस प्रीति हरिदास कै त्यों भावै हरिदास जस॥
नेह परसपर अघट निबहि चारों जुग आयो।
अनुचर को उत्कर्ष स्याम अपने मुख गायो॥
ओतप्रोत अनुराग प्रीति सबही जग जानै।
पुर प्रवेस रघुवीर भृत्य कीरति जु बखानै॥
अग्र अनुग गुन बरन तें सीतापति नित होत बस।
हरि सुजस प्रीति हरिदास कै त्यों भावै हरिदास जस॥
मूलार्थ – जिस प्रकार भगवान्के भक्तोंको भगवान्के सुयशपर प्रीति है, उसी प्रकार भगवान्को भी अपने भक्तोंका सुयश भाता है। यह परस्पर प्रेम अघट है, इसे नष्ट नहीं किया जा सकता, यह चारों युगोंसे चला आ रहा है। भक्तोंका उत्कर्ष स्याम अर्थात् भगवान् श्रीहरिने अपने मुखसे गाया है। और यह स्पष्ट है कि भगवान् भक्तोंका यश गाते समय अनुरागसे ओत-प्रोत हो जाते हैं। उनकी इस प्रीतिको सारे संसारने जाना। वनवासकी यात्रासे लौटते समय नगरमें प्रवेश करते समय भगवान्ने भरतजीके सामने अपने भक्त विभीषण और सुग्रीवकी कीर्तिका बखान किया। इसलिये अग्रदासजी कहते हैं कि अपने अनुग अर्थात् अपने अनुगामी भक्तोंका गुणवर्णन करनेपर सीतापति भगवान् सदाके लिये उस व्यक्तिके वशमें हो जाते हैं। इस प्रकार संकेत यह है कि श्रीभक्तमालका श्रवण, पठन और पाठन करनेसे सीतापति भगवान् राम और राधावर भगवान् श्रीकृष्ण प्रत्येक व्यक्तिके वशमें हो जाते हैं।