पद २००


॥ २०० ॥
अग्र कहैं त्रैलोक में हरि उर धरैं तेई बड़े॥
कबिजन करत बिचार बड़ो को ताहि भनिज्जै।
कोउ कह अवनी बड़ी जगत आधार फनिज्जै॥
सो धारी सिर शेष ताहि सिव भूषन कीनो।
सिव आसन कैलास भुजा भरि रावन लीनो॥
रावन जीत्यो बालि बालि राघव इक सायक दँड़े।
अग्र कहैं त्रैलोक में हरि उर धरैं तेई बड़े॥

मूलार्थ – कविजनोंने विचार करके कहा कि संसारमें सबसे बड़ा है कौन? किसीने कहा – “अवनी अर्थात् पृथ्वी बड़ी हैं, जो जगत्‌का आधार हैं।” किसीने कहा – “पृथ्वीके भी आधार तो फणीजी अर्थात् श्रीशेषनारायण हैं, अतः शेषजी बड़े होंगे।” तो किसीने कहा – “नहीं। शेषनारायणजीने यद्यपि पृथ्वीको धारण किया है, पर उनको तो शिवजीने आभूषण बनाया है, अतः शिवजी बड़े होंगे।” किसीने कहा – “ठीक है, शिवजीने आभूषण तो शेषनारायणजीको बनाया, पर शिवजी तो कैलासपर विराजते हैं, तो कैलास बड़ा होगा।” फिर किसीने कहा – “ठीक है, पर शिवजीके आसन अर्थात् निवास­स्थान कैलासको रावणने अपनी भुजाओंमें भर लिया था, अतः रावण बड़ा होगा।” फिर किसीने कहा – “नहीं, रावणको तो बालिने जीता था, बालि बड़ा होगा।” फिर किसीने कहा – “बालिको तो राघवजीने एक बाणमें मार डाला था, अतः राघवजी बड़े हैं।” अन्ततोगत्वा अग्रदासजीने कहा – “वही सबसे बड़ा है, जिसने अपने हृदयमें भगवान्‌को धारण किया है, अर्थात् हनुमान्‌जी और हनुमान्‌जीके समान अन्य सभी भक्त,” –

प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानघन।
जासु हृदय आगार बसहिं राम शर चाप धर॥

(मा. १.१७)

इसका तात्पर्य यह है कि जिन्होंने भगवान्‌को हृदयमें धारण किया, वे भक्त बड़े हैं। फलतः अन्य भक्त तो सदैव भगवान्‌को हृदयमें नहीं धारण कर पाते, परन्तु पूर्णरूपसे भगवान् श्रीहनुमान्‌जीके हृदयमें विराजते रहते हैं, यथा –

पवन तनय संतन हितकारी। हृदय बिराजत अवधबिहारी॥

(वि.प. ३६.२)

और भरतजीके भी हृदयमें सीता­रामजी रहते हैं, यथा भरत हृदय सिय राम निवासू (मा. २.२९५.७)। इस प्रकार श्रीरामको हृदयमें धारण करने वाले हनुमान्‌जी सबसे बड़े हैं, भरतजी सबसे बड़े हैं। और भी जिनके हृदयमें श्रीरामजी रहते हैं, ऐसे शिवजी प्रभृति सबसे बड़े हैं।