पद १९९


॥ १९९ ॥
दुर्लभ मानुषदेह को लालमती लाहो लियो॥
गौरस्याम सों प्रीति प्रीति जमुनाकुंजन सों।
बंसीबट सों प्रीति प्रीति ब्रजरजपुंजन सों॥
गोकुल गुरुजन प्रीति प्रीति घन बारह बन सों।
पुर मथुरा सों प्रीति प्रीति गिरि गोबर्धन सों॥
बास अटल बृंदा बिपिन दृढ़ करि सो नागरि कियो।
दुर्लभ मानुषदेह को लालमती लाहो लियो॥

मूलार्थश्रीलालमती माताजीने दुर्लभ मनुष्य­देहका लाभ ले लिया, अर्थात् मनुष्य­देहका लाभ है भगवत्प्रेम, उसे उन्होंने प्राप्त कर लिया। उन्हें गौरश्याम राधा­कृष्णसे प्रीति थी। लालमतीजीको यमुनाके कुञ्जोंसे प्रीति थी। श्रीलालमती माताजीको वंशीवटसे प्रीति थी। लालमती बाईजीको व्रजकी रजके पुञ्ज अर्थात् व्रजके धूलिपुञ्जसे प्रीति थी। उन्हें गोकुलसे और गुरुजनोंसे प्रीति थी और घने-घने बारह वनोंसे प्रीति थी। उन्हें मथुरापुरीसे प्रीति थी और गिरि गोवर्धनसे प्रीति थी। इस प्रकार उन नागरी लालमतीजीने भगवान्‌की आज्ञासे अटल वृन्दावन­वास किया और दुर्लभ मनुष्य­देहका लाभ लिया।

श्रीव्रजमें बारह वन कहे जाते हैं। वे हैं – (१) मधुवन (२) तालवन (३) कुमुदवन (४) बहुलावन (५) खाण्डीरवन (६) बिल्ववन (७) लोहवन (८) भाण्डीरवन (९) भद्रवन (१०) कामवन (११) छत्रवन और (१२) श्रीवृन्दावन। इन सब वनोंसे लालमती माताजीका दृढ़ प्रेम था।

अब भक्तचरित्रका विश्राम करते हुए नाभाजी कुछ वैचारिक तत्त्वोंकी चर्चा करते हैं –