पद १९८


॥ १९८ ॥
भगवँत मुदित उदार जस रस रसना आस्वाद किय॥
कुंजबिहारी केलि सदा अभ्यंतर भासै।
दंपति सहज सनेह प्रीति परिमिति परकासै॥
अननि भजन रसरीति पुष्टिमारग करि देखी।
बिधि निषेध बल त्यागि पागि रति हृदय विशेषी॥
माधव सुत संमत रसिक तिलक दाम धरि सेव लिय।
भगवँत मुदित उदार जस रस रसना आस्वाद किय॥

मूलार्थश्रीभगवन्त­मुदितजी उदार यशवाले भगवान्‌के यशके रसका अपनी रसनासे आस्वादन करते थे। श्रीभगवन्त­मुदितजीके हृदयमें कुञ्जबिहारी सरकारकी क्रीडा सदैव भासित होती रहती थी। दम्पती राधा­कृष्णजीके वास्तविक स्नेह एवं प्रेमकी पराकाष्ठा उनके हृदयमें प्रकाशित होती रहती थी। उन्होंने भजनकी अनन्य रसरीतिको दृढ़ करके इसी मार्गको पुष्ट करके देख लिया था। उन्होंने विधि-निषेधके बलको छोड़कर हृदयमें भगवान्‌की रतिको विशेषरूपसे पाग लिया था। इस प्रकार माधवदासजीके पुत्र श्रीभगवन्त­मुदितने रसिकोंकी सम्मतिसे तिलक और कण्ठी धारण करके दृढ़ सेवा स्वीकारी थी।

अब श्रीनाभाजी महाराज भक्तमालको विश्राम देते हुए अपनी रचनाके विश्राम­भक्तकी चर्चा करते हैं, वे हैं लालमती माताजी। नाभाजीने प्रारम्भ किया ब्रह्माजीसे और विश्राम कर रहे हैं लालमती माताजीके चरणों में। इसका तात्पर्य है कि भक्तमालमें जो भी भक्त है, उसका आदर होगा। वहाँ कोई स्त्री-पुरुषका प्रतिबन्ध नहीं है, और न ही किसी जातिका प्रतिबन्ध है, न किसी वर्णका और न ही किसी आश्रमका।