॥ १९७ ॥
बिप्र सारसुत घर जनम रामराय हरि रति करी॥
भक्ति ग्यान बैराग्य जोग अंतर गति पाग्यो।
काम क्रोध मद लोभ मोह मत्सर सब त्याग्यो॥
कथा कीरतन मगन सदा आनँद रस झूल्यो।
संत निरखि मन मुदित उदित रबि पंकज फूल्यो॥
वैर भाव जिन द्रोह किय तासु पाग खसि भ्वैं परि।
बिप्र सारसुत घर जनम रामराय हरि रति करी॥
मूलार्थ – सारस्वत ब्राह्मणोंके घरमें जिनका जन्म हुआ, ऐसे रामरायजीने भगवान्के चरणोंमें दिव्य रति की अर्थात् दिव्य भक्ति की। वे भक्ति, ज्ञान, वैराग्य व योग – इन सभी साधनोंको अपनी अन्तरकी धारणामें पाग लिये थे और इन्हींमें पग गए थे। उनके जीवनमें भक्ति, ज्ञान, वैराग्य व योग हृदयमें ही पग गया था। उन्होंने काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और मत्सरको छोड़ दिया था। वे सदैव भगवान्की कथा और कीर्तनमें मग्न रहते थे। वे आनन्दरसमें झूलते रहते थे। संतरूप उदितसूर्यको देखकर उनका हृदय कमलकी भाँति विकसित हो जाता था। जिन-जिन लोगोंने उनसे वैर और द्रोह किया, उनकी पगड़ी पृथ्वीपर गिर पड़ी और रामरायजीकी अटल भक्ति रह गई।