पद १९५


॥ १९५ ॥
गोपाली जनपोष को जगत जसोदा अवतरी॥
प्रगट अंग में प्रेम नेम सों मोहन सेवा।
कलिजुग कलुष न लग्यो दास तें कबहुँ न छेवा॥
बानी सीतल सुखद सहज गोबिँदधुनि लागी।
लच्छन कला गँभीर धीर संतनि अनुरागी॥
अंतर सुद्ध सदा रहै रसिक भक्ति निज उर धरी।
गोपाली जनपोष को जगत जसोदा अवतरी॥

मूलार्थ – भक्तोंका पालन करनेके लिये श्रीगोपालीजी इस प्रकार उपस्थित हुईं मानो जगत्‌में यशोदाजीने ही अवतार ले लिया है। यशोदाजीके ही समान गोपालीजीके अङ्गमें भगवान्‌के प्रति वात्सल्योचित प्रेम प्रकट हुआ। सदैव वे अपने मोहनलालकी नियमसे सेवा करती थीं। कलियुगका कलुष उनमें नहीं लगा था और भक्तोंके प्रति उनका कोई छिपाव या दुराव नहीं था अर्थात् उन्हें भक्तोंसे अत्यन्त प्रेम था। उनकी वाणी शीतल व सुखद होती थी। वे सदैव गोविन्द गोविन्द गोविन्द कहकर धुन करती रहती थीं। वे महिलोचित लक्षणों और गानकलामें अत्यन्त गम्भीर थीं। वे धीर थीं एवं संतोंके प्रति उनका अनुराग था। वे सदैव अन्तरसे शुद्ध रहती थीं और अपने हृदयमें वत्सलरसके अनुरूप उन्होंने रसिकभक्तिको धारण किया था। सदैव यशोदाजीकी ही भाँति वे भगवान्‌की सेवा करती थीं।

एक बार भगवान्‌की सेवा करते-करते गोपालीजीके मनमें आया कि कभी भगवान् मेरे हाथसे भोजन करेंगे, कभी मुझे दर्शन देंगे? तो संत रूपमें भगवान् आ गए और उन्होंने कहा – “गोपाली माँ! तुमने भगवान्‌को कुछ खिलाया नहीं।” गोपालीजीने कहा – “भगवान् तो कुछ खाते नहीं।” तो वे बोले – “आज प्रसाद बनाकर मन्दिरवाले भगवान्‌को अपने हाथसे खिलाओ, वे खा लेंगे।” तुरन्त गोपालीजीने प्रसाद सिद्ध किया। वे तुलसीदल पधराकर मन्दिरमें आईं और उन्होंने अपने मोहनलालको अपने हाथसे खिलाया। मोहनलालने गट-गट खाया। धन्य हो गईं माँ यशोदाकी आवेशावतार गोपालीजी।