पद १९४


॥ १९४ ॥
गिरिधरन ग्वाल गोपाल को सखा साँच लौ संगको॥
प्रेमी भक्त प्रसिद्ध गान अति गद्गद बानी।
अंतर प्रभु सों प्रीति प्रगट रह नाहिंन छानी॥
नित्य करत आमोद बिपिन तन बसन बिसारै।
हाटक पट हित दान रीझि तत्काल उतारै॥
मालपुरै मंगलकरन रास रच्यो रस रंगको।
गिरिधरन ग्वाल गोपाल को सखा साँच लौ संगको॥

मूलार्थगिरिधर ग्वालजी भगवान् गोपालजीके संगके वास्तविक सखा थे। वे एक प्रेमी भक्त थे एवं अत्यन्त प्रसिद्ध और गानमें निपुण थे। उनकी वाणी गद्गद होती थी। गान करते समय आन्तरिक रूपसे जो उनका प्रभुसे प्रेम था, वह प्रत्यक्ष दिखता था और कभी छिपाया नहीं जा सकता था। वृन्दावनमें नित्य रास करते हुए गिरिधर ग्वालजी अपने शरीर और वस्त्रोंको भूल जाते थे। दान करनेके लिये वे रीझकर सुन्दर स्वर्णिम आभूषणों और वस्त्रोंको भी तत्काल उतार देते थे। गिरिधर ग्वालजीने अपनी जन्मभूमि मालपुरामें मंगलकरन रास अर्थात् भगवान्‌के रसरङ्गका रास रचाया और भगवान्‌के रासमें ही अपने शरीरको छोड़कर परमपदको प्राप्त कर लिया।