पद १९३


॥ १९३ ॥
भक्तेस भक्त भव तोषकर संत नृपति बासो कुँवर॥
श्रीजुत नृपमनि जगतसिंह दृढ़ भक्ति परायन।
परमप्रीति किए सुबस सील लक्ष्मीनारायन॥
जासु सुजस सहजहीं कुटिल कलि कल्प जु घायक।
आज्ञा अटल सुप्रगट सुभट कटकनि सुखदायक॥
अति प्रचंड मार्तंड सम तमखंडन दोर्दंड बर।
भक्तेस भक्त भव तोषकर संत नृपति बासो कुँवर॥

मूलार्थ – भक्तोंके ईश्वर शिवजीको और उनके भक्तोंको संतुष्ट करनेवाले श्रीजगतसिंहजी, जो बासो अर्थात् बासवदेई महारानीके पुत्र थे, वे संतोंमें राजाके समान हुए। श्रीयुत राजाओंके मुकुटमणि श्रीजगतसिंहजी दृढ़ भगवद्भजन­परायण हुए। उन्होंने अपनी परम प्रीति और अपने सुन्दर शीलसे श्रीलक्ष्मी­नारायणको स्ववश कर लिया था। उनका सुयश सहज ही कुटिल कलिकालके प्रपञ्चोंको नष्ट कर देता था। उनकी आज्ञा प्रत्यक्ष रूपमें अटल होकर वीरों और सैनिकोंको सुख देती थी। उनकी श्रेष्ठ भुजाएँ अन्धकारको नष्ट करनेके लिये अत्यन्त प्रचण्ड सूर्यनारायणके समान थीं।