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भक्तरतनमाला सुधन गोबिँद कंठ बिकास किय॥
रुचिरसील घननील लील रुचि सुमति सरितपति।
बिबिध भक्त अनुरक्त ब्यक्त बहु चरित चतुर अति॥
लघु दीरघ स्वर सुद्ध बचन अबिरुद्ध उचारन।
बिश्वबास बिश्वास दास परिचय बिस्तारन॥
जानि जगतहित सब गुननि सुसम नरायनदास दिय।
भक्तरतनमाला सुधन गोबिँद कंठ बिकास किय॥
मूलार्थ – भक्तरत्नमाला सुन्दर धनके रूपमें गोविन्ददासजीके कण्ठमें विकसित हुई अर्थात् सर्वप्रथम भक्तमाली गोविन्ददासजी ही बने, जो नारायणदास नाभाजीके शिष्य थे। अत्यन्त सुन्दर शीलवाले नीलघनके समान श्यामल भगवान् श्रीरामकी लीलामें गोविन्ददासजीकी बहुत रुचि थी। वे सुन्दर बुद्धिके सरितपति अर्थात् सागरके समान थे। वे अनेक प्रकारके अनुरक्त भक्तोंके अनेक चरित्रोंके वर्णनमें बहुत चतुर थे। गोविन्ददासजी लघु और दीर्घ आदि परम्पराओंसे शुद्ध स्वर और अविरुद्ध वचनका उच्चारण करते थे अर्थात् वे भक्तमालके पदोंको जहाँ लघु स्वर होता था वहाँ लघुतासे गाते थे और जहाँ दीर्घ स्वर होता था वहाँ दीर्घतासे गाते थे, और शुद्ध स्वरमें गाते थे। उनका वचन पूर्वापरकी परम्परासे विरुद्ध नहीं होता था, अविरुद्ध ही रहता था। वे विश्वबास भगवान् रामचन्द्रजीके प्रति विश्वास करते थे। इन्हीं विश्ववासकी चर्चा गोस्वामीजीने रामचरितमानसमें की है –
भगत बछल प्रभु कृपा निधाना। विश्ववास प्रगटे भगवाना॥
(मा. १.१४६.८)
इसका तात्पर्य यह है कि गोविन्ददासजी गोस्वामी तुलसीदासजीकी रामचरितमानसजीसे बहुत प्रभावित थे। दासोंके परिचयका वे विस्तार करते थे। इस प्रकार जानि जगतहित सब गुननि उन गोविन्ददासजीको जगत्का हितैषी, सभी गुणोंसे युक्त, और अपने समान जानकर ही नारायणदास नाभाजीने यह भक्तमाल सर्वप्रथम गोविन्ददासजीको दिया।