पद १८८


॥ १८८ ॥
भगवानदास श्रीसहित नित सुहृद सील सज्जन सरस॥
भजनभाव आरूढ़ गूढ़ गुन बलित ललित जस।
श्रोता श्रीभागवत रहसि ग्याता अच्छर रस॥
मथुरापुरी निवास आस पद संतनि इकचित।
श्रीजुत खोजी स्याम धाम सुखकर अनुचरहित॥
अति गंभीर सुधीर मति हुलसत मन जाके दरस।
भगवानदास श्रीसहित नित सुहृद सील सज्जन सरस॥

मूलार्थ – श्रीसे नित्य युक्त भगवानदासजी सुहृद्, सुशील और भगवान्‌के रसिक सज्जन अर्थात् वैष्णव थे। वे भजनभावमें आरूढ़ थे। उनके गुण छिपे हुए थे और वे भगवान्‌से युक्त, भगवान्‌से आलिङ्गित रहते थे। बलित अर्थात् आलिङ्गित। उनका यश ललित था। भगवानदासजी श्रीभागवतके नित्य श्रोता थे, और वे भागवतजीके अक्षरोंके रहस्य और रसके ज्ञाता थे। भगवानदासजी मथुरापुरीमें निवास करते थे। उनके चित्तमें एकमात्र संतोंके चरणधूलिकी आशा रहती थी। वे श्रीयुत खोजी श्रीश्यामदासजीके स्थानपर परिकरोंको सुख देते थे और उन्हींके अनुचर थे। भगवानदासजी अत्यन्त गम्भीर थे। उनकी बुद्धि अत्यन्त धीर थी और उनका दर्शन करके मन भगवत्प्रेममें उल्लसित हो जाता था।