पद १८७


॥ १८७ ॥
हरिभजन सींव स्वामी सरस श्रीनारायनदास अति॥
भक्ति जोग जुत सुदृढ़ देह निजबल करि राखी।
हिये सरूपानंद लाल जस रसना भाखी॥
परिचै प्रचुर प्रताप जानमनि रहस सहायक।
श्रीनारायन प्रगट मनो लोगनि सुखदायक॥
नित सेवत संतनि सहित दाता उत्तरदेस गति।
हरिभजन सींव स्वामी सरस श्रीनारायनदास अति॥

मूलार्थश्रीनारायणदासजी भगवान्‌के भजनकी सीमा थे। उन्हें स्वामी शब्दसे कहा जाता था, वे अत्यन्त सरस स्वामी थे। उनका शरीर सदैव भक्तियोगसे युक्त एवं सुदृढ़ था, जिसे उन्होंने अपने वशमें कर लिया था। नारायणदासजीके हृदयमें भगवान्‌के स्वरूपका आनन्द था। मुखसे उन्होंने लालजीके यशको गाया। उनका परिचय बहुत प्रसिद्ध हुआ। नारायणदासजीके भजनका प्रताप भी प्रकट हुआ। रहस अर्थात् एकान्तमें जानमनि अर्थात् सबको जानने वाले भगवान् उनकी सहायता करते थे। नारायणदासजीको देखकर ऐसा लगता था मानो भक्तोंको सुख देनेके लिये स्वयं श्रीनारायण ही प्रकट हो गए हैं। नारायणदासजी संतोंके सहित निरन्तर सबकी सेवा करते थे और उत्तरदेशके लोगोंको सुन्दर गति दिया करते थे। ऐसे श्रीनारायणदासजीकी जय!