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दधीचि पाछे दूजी करी कृष्णदास कलि जीति॥
कृष्णदास कलि जीति न्योति नाहर पल दीयो।
अतिथिधर्म प्रतिपाल प्रगट जस जग में लीयो॥
उदासीनता अवधि कनक कामिनि नहिं रातो।
रामचरनमकरंद रहत निसिदिन मदमातो।
गलते गलित अमित गुन सदाचार सुठि नीति।
दधीचि पाछे दूजी करी कृष्णदास कलि जीति॥
मूलार्थ – श्रीकृष्णदास पयहारीजीने कलियुगको जीतकर अस्थिदान करने वाले महर्षि दधीचिको भी पीछे कर दिया और वे द्वितीय दधीचि जैसे बन गए। दधीचिजीने ध्यान करके अस्थिदान किया था, वह भी देवताओंके माँगने पर, परन्तु श्रीकृष्णदास पयहारीजीने तो अपनी गुफाके द्वारपर खड़े हुए सिंहको ही अपनी जाँघका मांस काट कर दे दिया। पल अर्थात् मांस। उन्होंने अतिथिधर्मका प्रतिपालन करके भोजनके लिये सिंहको आमन्त्रित किया और अपनी जाँघका मांस दे दिया। सारे संसारमें उन्होंने अतिथिधर्मके प्रतिपालनका प्रत्यक्ष यश लिया। कृष्णदासजी महाराज उदासीनताकी अवधि थे। वे स्वर्ण और कामिनीमें कभी भी अनुरक्त नहीं हुए। श्रीकृष्णदासजी महाराज श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलके मकरन्दरसका पान करके निरन्तर उसी मदमें मत्त रहते थे अर्थात् तल्लीन रहते थे। श्रीकृष्णदासजी गालतेमें विराजते थे जहाँ उनके अनेक गुण प्रकट हुए और वहीं गालतेमें विराजते हुए उन्होंने सदाचार एवं सुन्दर नीतिका दर्शन करवाया।