॥ १८२ ॥
अष्टांग जोग तन त्यागियो द्वारिकादास जाने दुनी॥
सरिता कूकस गाँव सलिल में ध्यान धर्यो मन।
रामचरन अनुराग सुदृढ़ जाके साँचो पन॥
सुत कलत्र धन धाम ताहि सों सदा उदासी।
कठिन मोह को फंद तरकि तोरी कुल फाँसी॥
कील्ह कृपा बल भजन के ग्यानखड्ग माया हनी।
अष्टांग जोग तन त्यागियो द्वारिकादास जाने दुनी॥
मूलार्थ – श्रीद्वारकादासजीने अष्टाङ्गयोगके द्वारा शरीरको छोड़ा यह सारा संसार जानता है। द्वारकादासजीने कोकस ग्रामके पास नदीमें ही प्रवेश करके जलमें खड़े रहकर भगवान् श्रीरामका ध्यान धारण किया, भगवान्का ध्यान लगाया। उनके मनमें श्रीरामजीके चरणके प्रति अनुराग था, और उनका प्रेमप्रण दृढ़ और सत्य था। वे पुत्र, स्त्री, धन और भवन – इन सबसे सदैव उदासीन ही रहे। उन्होंने कठिन मोहके फंद रूप फाँसीको तिनकेके समान तोड़ दिया और श्रीकील्हदेवजीकी कृपासे और अपने भजनबलसे ज्ञानकी तलवार लेकर उन्होंने मायाको समाप्त कर दिया था। अष्टाङ्गयोगसे शरीरको छोड़कर द्वारकादासजी भगवान् श्रीरामके चरणमें विलीन हो गए।