पद १८१


॥ १८१ ॥
परमधर्म प्रतिपोष को संन्यासी ए मुकुटमनि॥
चित्सुख टीकाकार भक्ति सर्बोपरि राखी।
श्रीदामोदरतीर्थ राम अर्चन बिधि भाखी॥
चंद्रोदय हरिभक्ति नरसिंहारन्य कीन्ही।
माधव मधुसूदन (सरस्वती) परमहँस कीरति लीन्ही॥
प्रबोधानंद रामभद्र जगदानंद कलिजुग धनि।
परमधर्म प्रतिपोष को संन्यासी ए मुकुटमनि॥

मूलार्थपरमधर्म अर्थात् भगवान्‌की प्रेमा भक्तिके परिपोषणके लिये आगे कहे जाने वाले संन्यासी मुकुटमणि बन गए, अर्थात् संन्यासी होकर भी इन लोगोंने भगवान्‌की प्रेमलक्षणा भक्तिका परिपोषण किया और जीवनमें उसी भक्तिमें तन्मय रहे। जैसे – (१) गीताजीके चित्सुख­टीकाकार श्रीचित्सुखाचार्यजीने अपनी चित्सुखीमें भक्तिको ही सर्वोपरि कहा।[1] (२) श्रीदामोदर­तीर्थजीने रामार्चाकी विधि कही और रामार्चन­पद्धतिका ग्रन्थ लिखा। (३) श्रीनरसिंहारण्य स्वामीजीने विष्णु­भक्ति­चन्द्रोदय ग्रन्थ लिखा और (४) श्रीमाधव मधुसूदन सरस्वतीजीने इस संसारमें परमहंसकी कीर्ति पाई। (५) प्रबोधानन्दजी (६) श्रीरामभद्रानन्दजी और (७) श्रीजगदानन्दजी – ये सब कलियुगमें धनी अर्थात् भगवत्प्रेम धनसे धनाढ्य हुए।

मधुसूदन सरस्वती पहले शास्त्रार्थ करके सबको परास्त करते थे। एक दिगम्बर संन्यासी अर्थात् स्वयं विश्वेश्वराश्रमजीने उन्हें फटकार लगाई, फिर वे भक्ति­परायण हो गए। उन्होंने गोपालमन्त्रका अठारह बार छः-छः महीनोंका अनुष्ठान किया। भगवान् श्याम­सुन्दर श्रीकृष्ण­चन्द्रजीके उन्हें दर्शन हुए और मधुसूदन सरस्वतीजीने स्वयं यह तथ्य स्वीकारा –

वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात्पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात्।
पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात्कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने॥

अर्थात् जिनका श्रीहस्तकमल वंशीसे सुशोभित है, जो नवीन बादलके समान आभासे युक्त शरीर वाले हैं, जिन्होंने पीताम्बर धारण किया है, जिनका अधरोष्ठ अरुण बिम्बफलके समान है, जिनका मुख पूर्णचन्द्रके समान है, जिनके नेत्र कमलके समान हैं – ऐसे श्रीकृष्णके अतिरिक्त मैं कोई तत्त्व जानता ही नहीं हूँ। इन्हीं मधुसूदन सरस्वतीजीने श्रीगोस्वामि­तुलसीदासकृत श्रीरामचरितमानसजीके लिये एक श्लोक लिखा –

आनन्दकानने ह्यस्मिञ्जङ्गमस्तुलसीतरुः।
कवितामञ्जरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥

अर्थात् इस आनन्दवन काशीमें तुलसीदासजी चलते-फिरते तुलसीवृक्षके समान हैं। इनकी कविता मञ्जरीके समान है, जो सदैव श्रीरामरूप भ्रमरसे सुशोभित रहती है अर्थात् तुलसीदासजीकी कवितामञ्जरीपर श्रीरामजी भ्रमरकी भाँति मंडराते रहते हैं। तुलसीदासजीकी कविता कभी श्रीरामजीसे पृथक् होती ही नहीं।

[1] चित्सुखाचार्यकी गीताजीपर रचित तत्त्वप्रदीपिका टीकाको ही चित्सुखी भी कहा जाता है।