॥ १७९ ॥
तिलक दाम परकास को हरीदास हरि निर्मयो॥
सरनागत को शिबिर दान दधीच टेक बलि।
परम धर्म प्रह्लाद सीस जगदेव देन कलि॥
बीकावत बानैत भक्तिपन धर्मधुरंधर।
तूँवर कुल दीपक्क संतसेवा नित अनुसर॥
पार्थपीठ अचरज कौन सकल जगत में जस लयो।
तिलक दाम परकास को हरीदास हरि निर्मयो॥
मूलार्थ – तिलक और मालाके प्रकाशके लिये श्रीहरिदासजीको ही श्रीहरिने स्वयं निर्मित किया। महाराज हरिदास शरणागतकी रक्षाके लिये शिबिके समान थे। दानमें वे दधीचिके समान थे। टेक अर्थात् प्रतिज्ञाके पालनमें वे बलिके समान थे। हरिदासजी परमधर्मका पालन करनेमें प्रह्लादके समान थे, और शीश समर्पित करनेमें कलियुगमें रिझवारके राजा महाराज जगदेवके समान थे। वे बीकावत वंशमें उत्पन्न हुए थे। उनका दिव्य बानैत अर्थात् सुयश चारों ओर फैल रहा था। भक्तोंकी सेवा ही उनका प्रण था। वे धर्मधुरन्धर थे। वे तूँवर कुल अर्थात् तोमरवंशके दीपक थे और सदैव संतसेवाका अनुसरण करते थे। वे पार्थपीठ अर्थात् अर्जुनजी और परीक्षित्जीके पीठमें अर्थात् वंशमें उत्पन्न हुए थे। हरिदासजीके लिये क्या आश्चर्य था। उन्होंने सारे संसारमें दिव्य यश लिया।
जगदेवजीकी चर्चा प्रियादासजीने अपनी भक्तिरसबोधिनी टीकामें की है (भ.र.बो. ६०४)। रिझवारके राजा महाराज जगदेवजीके पास एक नटी आई। प्रियादासजीके अनुसार यह नटी शक्तिकी अवतार थी। नटीने अपने नृत्यमें भगवान्की लीला की, जगदेवजीको दर्शन कराए। जगदेवजीने कहा – “तुम्हें क्या दे दूँ? मैं तुम्हें अपना सिर ही दे दे रहा हूँ। जब चाहो तब काटकर ले जाना।” नटीने कहा – “मैं भी आपको अपना दाहिना हाथ दे देती हूँ। अब यह हाथ केवल आपके सामने ही फैलाया जाएगा। इस हाथपर केवल आप ही कुछ दे सकेंगे, और लोगोंसे तो मैं बाएँ हाथसे ही लूँगी।” एक भगवद्विमुख राजाने भी उस नटीको बुलवाया। वहाँ भी उस नटीने राजाको रिझा लिया। राजाने कुछ देना चाहा तो नटीने अपना दाहिना हाथ नहीं बढ़ाया, बायाँ हाथ ही आगे किया। राजाने जब कारण पूछा तो नटीने कहा – “मैंने रिझवारके नरेश जगदेवजीको दाहिना हाथ दे दिया है।” परीक्षाकी बात आई। राजाने कहा – “तुमको कौन-सा ऐसा उपहार उन्होंने दिया है?” नटीने कहा – “मैं समय आनेपर बताऊँगी।” राजा जगदेवजीके पास बारह वर्षके पश्चात् नटी आई, और उसने कहा – “राजन् अब आप अपना दान दे दीजिये।” जगदेवजीने अपना सिर काटकर नटीके दाहिने हाथमें दे दिया। नटीने कटा हुआ सिर थालीमें ले लिया और ले जाकर भगवद्विमुख राजाको दिखाया। राजा चकित हो गया। अन्तमें फिर नटी राजा जगदेवके स्थानपर आई और भगवान्का गुण गाकर उसने जगदेवजीके धड़से सिरको जोड़ दिया, जगदेवजी जीवित हो उठे।
इसी प्रकार हरिदासजीने भी संतोंको अपना सिर तक दे दिया था। वे बीकावत वंशमें उत्पन्न बानैत अर्थात् प्रसिद्ध भक्तोंकी सेवामें प्रतिज्ञाबद्ध धर्ममें धुरन्धर थे। ऐसे हरिदासजी महाराजकी जय हो!