॥ १७७ ॥
बिठलदास हरिभक्ति के दुहूँ हाथ लाडू लिया॥
आदि अंत निर्बाह भक्तपदरजब्रतधारी।
रह्यो जगत सों ऐंड़ तुच्छ जाने संसारी॥
प्रभुता पति की पधति प्रगट कुलदीप प्रकासी।
महत सभा में मान जगत जानै रैदासी॥
पद पढ़त भई परलोक गति गुरु गोबिँद जुग फल दिया।
बिठलदास हरिभक्ति के दुहूँ हाथ लाडू लिया॥
मूलार्थ – श्रीविट्ठलदासजीने भगवान्की भक्तिके लड्डूको दोनों हाथोंमें प्राप्त किया था, अर्थात् उन्होंने लोकमें संतसेवा की और परलोक जाकर भगवान्की नित्य सेवा की। श्रीविट्ठलदासजीने अपने जीवनमें आदिसे अन्तपर्यन्त भगवद्धर्मका निर्वहण किया और आदिसे अन्तपर्यन्त भक्तोंके चरणकी धूलिको ही व्रत रूपमें धारण किया अर्थात् भक्तोंकी ही सेवा की। वे जगत्से ऐंड़ अर्थात् थोड़ा ऐंठ कर चले, उन्होंने संसारवालोंसे बहुत प्रेम नहीं किया। इसलिये संसारी लोग उन्हें तुच्छ अर्थात् छोटा और अहंकारी समझते थे। वास्तवमें यह बात थी नहीं, वे अहंकारी नहीं थे। परन्तु जिनका मन जगत्में लगता था, उनसे विट्ठलदासजी थोड़ा दूर ही रहे और उनके साथ विट्ठलदासजीने अपना संबन्ध नहीं रखा अपितु उनसे ऐंड़ अर्थात् कठोरताका व्यवहार किया। प्रभुताजीके पति श्रीरैदासजीकी पद्धतिसे ही श्रीविट्ठलदासजीने उपासना की। वे अपने कुलके दीपक बनकर प्रत्यक्ष प्रकाशित हुए। सारा संसार भले ही उन्हें रैदासी अर्थात् रैदास पद्धतिके उपासक और रैदासजीके कुलमें उत्पन्न चमार समझता था, परन्तु संतोंकी सभामें विट्ठलदासजीका बहुत सम्मान था। श्रीविट्ठलदासजीने अन्तमें भगवत्संबन्धी पदको पढ़ते हुए ही परलोकगतिको प्राप्त कर लिया। इस प्रकार गुरु श्रीरैदास और गोविन्द भगवान् श्रीरामचन्द्रजी – दोनोंने मिलकर उन्हें दोनों फल दिये अर्थात् लोकमें संतसेवा दी, और परलोकमें भगवत्कैङ्कर्य दे दिया।