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हरिभक्ति भलाइ गुन गँभीर बाँटे परी कल्यान के॥
नवकिसोर दृढ़ ब्रत अननि मारग इक धारा।
मधुर बचन मनहरन सुखद जानै संसारा॥
पर उपकार बिचार सदा करुना की रासी।
मन बच सर्बस रूप भक्त पदरेनु उपासी॥
धर्मदाससुत सील सुठि मन मान्यो कृष्ण सुजान के।
हरिभक्ति भलाइ गुन गँभीर बाँटे परी कल्यान के॥
मूलार्थ – श्रीधर्मदासजीके पुत्र, गुणोंसे गम्भीर और स्वभावसे सुन्दर श्रीकल्याणदासजीके भागमें श्रीहरि भगवान्की भक्ति और भलाई – ये दोनों उसी प्रकार प्राप्त हुईं जैसे पिताके द्वारा कोई वस्तु किसीको बाँटेमें अर्थात् भागमें दे दी जाती है। जब सब कुछ बँटने लगा, तब कल्याणदासजीके भागमें भगवान्की भक्ति और भलाई बाँटेमें पड़ी थी। वे नवकिशोर अर्थात् नवलकिशोर यादवेन्द्र सरकार श्रीकृष्णके प्रति दृढ़ व्रत धारण करते थे। उनका मार्ग अनन्य था। एकधारा नदीकी भाँति उनका व्यक्तित्व सदैव भगवान्के प्रति अनन्यनिष्ठ था। संपूर्ण संसार जानता है कि कल्याणदासजीका वचन अत्यन्त मधुर होता था, मनको हर लेता था और सबको सुख देता था। कल्याणदासजीका स्वभाव और विचार सदैव परोपकारी था। वे करुणाकी राशि थे। भक्तोंके चरणकमलकी धूलि उनके लिये मनसे और वाणीसे सर्वस्व रूप थी, वे सदैव उसीकी उपासना करते थे। अथवा कल्याणदासजी अपने सर्वस्वरूप वैष्णव भक्तोंके चरणकी धूलिकी मन और वाणीसे उपासी अर्थात् उपासना करते थे। यहाँ तक कि धर्मदासजीके पुत्र श्रीकल्याणदासजी शीलसे सुष्ठु थे इसीलिये सुजान श्रीकृष्णचन्द्रजीके भी मनमें वे बहुत माने गए, बहुत भाए और बहुत सम्मानके पात्र बने। भगवान् श्रीकृष्णने भी उनका बहुत सम्मान किया था।