पद १७५


॥ १७५ ॥
निष्किंचन भक्तनि भजै हरि प्रतीति हरिबंस के॥
कथा कीरतन प्रीति संतसेवा अनुरागी।
खरिया खुरपा रीति ताहि ज्यों सर्बसु त्यागी॥
संतोषी सुठि सील असद आलाप न भावै।
काल बृथा नहिं जाय निरंतर गोबिँद गावै॥
सिष सपूत श्रीरंग को उदित पारषद अंस के।
निष्किंचन भक्तनि भजै हरि प्रतीति हरिबंस के॥

मूलार्थश्रीहरिवंशजी महाराज, जो श्रीरङ्गजी महाराजके सुन्दर पुत्र भी थे और उन्हींके शिष्य भी थे, जो भगवान्‌के पार्षदोंके अंशसे उदित हुए थे अर्थात् भगवान्‌के पार्षदोंके अंशावतार ही थे, ऐसे श्रीहरिवंशजी निष्किञ्चन भक्तोंको भजा करते थे और उन भक्तोंमें इनको श्रीहरिकी प्रतीति हुआ करती थी। हरिवंशजीकी भगवान्‌की कथाके श्रवणमें और भगवान्‌के कीर्तनमें प्रीति थी। संतोंकी सेवामें उन्हें अनुराग था। हरिवंशजीने संसारको इस प्रकार त्यागा जैसे कोई कृषक खुरपीसे घास काटता है, और घास काटनेके बाद खुरपीको भी फेंक देता है, उसी प्रकार इस संसारका व्यवहार करते हुए वे संसारसे चर्चा करते थे और संसारसे व्यवहारिक कार्य छोड़कर फिर उसे छोड़ देते थे। अथवा, उन्होंने अपना सर्वस्व उसी प्रकार छोड़ दिया था, जैसे कृषक खरिया अर्थात् घास और खुरपी दोनों छोड़ देता है – घास खिला देता है और खुरपी फेंक देता है। उसी प्रकार जो धन आता था उससे वे संतोंको खिला देते थे और जिस माध्यमसे आता था उस माध्यमको भी हरिवंशजी छोड़ देते थे। हरिवंशजी संतोषी थे। उनका स्वभाव बहुत सुन्दर था, उन्हें असद आलाप अर्थात् भगवद्विरुद्ध वार्ता अच्छी नहीं लगती थी। अपने कालको वे व्यर्थ नहीं गँवाते थे, निरन्तर गोविन्द गोविन्द गाते रहते थे – गोविन्द जय जय, गोपाल जय जय। इस प्रकार श्रीरङ्गजीके सुन्दर पुत्र और शिष्य, भगवान्‌के पार्षदोंके अंशसे ही उदित अर्थात् भगवान्‌के पार्षदोंके अंशावतार श्रीहरिवंशजी निष्किञ्चन भक्तोंको भजते थे और उनमें उन्हें श्रीहरि भगवान्‌की प्रतीति होती थी।