पद १७२


॥ १७२ ॥
लट्यो लटेरा आन बिधि परम धरम अति पीन तन॥
कहनी रहनी एक एक हरिपद अनुरागी।
जस बितान जग तन्यो संतसम्मत बड़भागी॥
तैसोइ पूत सपूत नूत फल जैसोइ परसा।
हरि हरिदासनि टहल कवित रचना पुनि सरसा॥
सुरसुरानँद संप्रदाय दृढ़ केसव अधिक उदार मन।
लट्यो लटेरा आन बिधि परम धरम अति पीन तन॥

मूलार्थश्रीकेशवदास लटेराजी अन्य प्रकारसे भले लटे हों अर्थात् निर्बल हों, अर्थात् संसारके व्यवहारोंमें भले वे निर्बल हों, परन्तु परम धरम अर्थात् भगवद्धर्मके पालनमें उनका शरीर बहुत स्थूल था। अभिप्राय यह है कि संसारका व्यवहार वे बहुत कम करते थे पर भगवद्भजन और भगवत्संबन्धी व्यवहारोंमें वे बहुत दृढ़ रहा करते थे। उनका व्यक्तित्व बहुत पावन था। उनकी कहनी और रहनी एक थी अर्थात् जैसा वे कहते थे वैसा ही करते भी थे। एक हरिपद अनुरागी अर्थात् वे एकमात्र भगवान्‌के चरणोंमें प्रेम करने वाले थे। अथवा कहनी रहनी एक एक हरिपद अनुरागी इस पङ्क्तिका यह अर्थ भी किया जा सकता है कि पिता केशवदासजीकी करनी-धरनी एक थी और पुत्र परशुरामजी भगवान्‌के चरणोंमें प्रेम करते थे। केशवदासजीका यशोवितान संसारमें तन गया था। वे संतोंके द्वारा सम्मत बड़भागी व्यक्तित्वके धनी थे। जिस प्रकार केशवदासजी अत्यन्त उदार मनवाले थे, उसी प्रकार उनके पुत्र परशुरामजी भी सपूत थे। और जैसे कल्पवृक्षका नया फल भी उसी प्रकारका होता है, उसी प्रकार केशवदासजीके पुत्र परसा अर्थात् परशुरामजी भी थे। हरि हरिदासनि टहल अर्थात् परशुरामजी भगवान् और भगवान्‌के दासोंकी सेवा करते थे और कवित रचना पुनि सरसा अर्थात् उनकी कवित्त­रचना बहुत सरस हुआ करती थी। केशवदासजीका संप्रदाय जगद्गुरु श्रीमदाद्य रामानन्दाचार्यके चतुर्थ शिष्य श्रीसुरसुरानन्दसे अनुमोदित संप्रदाय था, अर्थात् वे श्रीसीता­रामजीकी उपासना करते थे। उनका मन अत्यधिक उदार था। इस प्रकार केशवदास लटेराजी और परशुरामदासजी – ये दोनों ही अद्भुत व्यक्तित्वके धनी हुए।